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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ४ सू० ४३ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् ११३ मातृस्थानं छलकपटमाया दिदोषान् संस्पृशेत् छलकपटादिदोषभाक् स्यादित्यर्थः अतः तत्प्रतिवेधं कुर्वन्नाह 'तं नो एवं करिज्जा' तत् तस्मात् नो एवम् उक्तरीत्या आगन्तुकमुनिविशेष परित्यज्य न भिक्षां कुर्यात्, अन्यथा छलकपटादि मातृस्थानदोपसंस्पर्शेन संयमविराधना स्यात्, अपि तु कथं मिक्षां कुर्यादित्याह - 'से तत्थ भिक्खूहिं सद्धिं कालेण अणुप विसित्ता' स पूर्वोक्तः एकस्मिनैवक्षेत्रे निवसन् साधुः मासकल्पविहारी वा साधुः तत्र - तस्मिन्नेव ग्रामादौ मिक्षुभिः प्राघूर्णिकागन्तुक भिक्षुकैः सार्द्धम् कालेन भिक्षावसरसमयेन भिक्षाकाले समुपस्थि इत्यर्थः गृहपतिकुलम् अनुप्रविश्य ' तत्थिय रेयरेहिं कुले हिं' तत्र - तस्मिन्नेव ग्रामादौ इतरेतरेभ्यः अन्यान्येभ्यः उच्चावचेभ्यः कुलेभ्यः 'सामुदाणियं' सामुदानिकम् भिक्षापिण्डम् 'एसिय' एवणीयम् प्रानुकम् अचित्तम् उद्गमादिदोषरहितम् 'चेसियं' वैषिकम् केवल वेषउनके साथ ही भिक्षा लेकर निकलूंगा, किन्तु ऐसा करने पर - [-अर्थात् पहले प्राइवेट ही स्वादिष्ट भोजनादि को लाकर खापी लेने के बाद में प्राघूर्णिक साधुओं के साथ भिक्षा लाकर खाने पीने से 'माइट्ठाणं संफासे तं णो एवं करिज्जा' मातृस्थान दोष लगेगा अर्थात् लुक छिपकर बढियां बढियां भोजनादि लाकर खाने पीने के बाद उन आये हुए प्राघूर्णिक साधुओं के साथ केवल दिखावा के लिये ही भिक्षा चर्या करके गोचरी करने से ऐसे करने वाले साधु को छल कपटमायादि रूप मातृ स्थान दोष होगा, इसलिये ऐसा नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसे करने से संयम विराधना होगी, अब किस तरह भिक्षा लानी चाहिये यह बतलाते हैं- 'तत्थ भिक्खूहं सद्धि' वह पूर्वोक्त उस एक ही क्षेत्र में निवास करने वाला साधु या मासकल्पविहारी साधु उन आगन्तुक प्राघूर्णिक श्रमणों के साथ ही 'कालेण' भिक्षा का अवसर आने पर श्रावक के घर में 'अणुपविसित्ता' प्रवेश कर वहां कि 'तत्थियरेरेहिं कुलेहिं' वहां किसी अन्य कुल से 'सामुदाणियं' सामुदानिक 'एसियं' साभि वा' भनी साथै लिक्षा सहने गृहस्थना घेरथी महार नोउली परंतु तेभ उपाधी એટલે કે પહેલાં ખાનગી રીતે સ્વાદિષ્ટ ભેજનાદિ લાવી અને તે ખાઈ પી અને તે પછી अतिथि साधुयोनी साथै भिक्षासावीने ते भावा पीवाथी 'माइट्ठाणं सं फासे' भातृस्थान होष લાગે છે, અર્થાત્ ચારી છૂપીથી સારૂં સારૂં ભેજનાદિ લાવીને ખાધા પીધા પછી એ આવેલા અતિથિ સાધુએની સાથે પણ કેવળ દેખાવ માટે જ ભિક્ષાં ચર્ચા કરીને ખાવાથી છળકપટ માયારૂપ માતૃસ્થાન દેષ તેમ કરવાવાળા સાધુને લાગે છે તેથી તેમ કરવુ ન જોઇએ. કેમકે—એમ કરવાથી સયમની વિરાધના થાય છે. हवे लिक्षा देवी रीते साववी ते बतावे छे - ' ' से तत्थ भिक्खुहि सद्धि कालेण अणुपविसित्ता' ते पूर्वोक्त साधु ४४ क्षेत्रमां निवास पुरता होय अथवा भास કલ્પ વિહારી સાધુએ આવેલ અતિથિ શ્રમણાની સાથે ભિક્ષા લેવાના સમયેજ શ્રાવકના ઘરમાં प्रवेश ने 'तत्थियरेरेहिं कुलेहि' त्यां पशु जीन धरमांथी 'सामुदाणियं' सामुहायिष्ठ आ० १५ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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