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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ गाः ४-५ अ. १६ विमुक्ताध्ययनम् ११७१ मूलम्-उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तसथावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥४॥ छाया-उपेक्षमाणः कुशलैः संबसेत्, अकान्तदुःखिनः सस्थावरान् दुःखिनः । ___अलूषयन् सर्वस हे महामुनिः तथा ह्यसौ सुश्रमणः समाहितः॥४॥ टीका-सम्प्रति रूप्याधिकारमाश्रित्य प्ररूपयितुमाह-'उवेहमाणे कुसले हिं संवसे' उपेक्षमाणः-इष्टानिष्टविषयेषु मध्यस्थभावमाश्रयन् परीषहोपसर्गान् वा सहन् भावसाधुः कुशलैः-गीतार्थमुनिभिः साकम् संवसेत्-निवासं कुर्यात् तिष्ठेदित्यर्थः तथा 'अकंत दुक्खीतसथावरा दुही' अकान्त दुःखिन:-असातावेदनीयरूपा कमनीयानिष्टदुःखमागिन: सस्थावरान्-द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियरूपत्रसजीवान् एकेन्द्रिय पृथिवीकायिका दिपञ्चस्थावरांश्च दु:खिने जीवान 'अलूसए सव्वसहे महामुणी' अलूपयन्-अपरितापयन् परितापसर्गों से याने अनार्य दुष्ट जनों के उपद्रवों से विचलित नहीं होते हैं इस प्रकार पर्वताधिकार की वक्तव्यता पूर्ण हो गयी। ___ अब रूप्याधिकार को उद्देश्यकर निरूपण करने के लिये कहते हैं-'उवेहमाणे कुसलेहिं संबसे ।। ४॥ उपेक्षमाणः-इष्ट और अनिष्ट विषयों में मध्यस्थ भाव का आश्रयण करता हुआ जन साधु कुशल याने गीतार्थ मुनियों के साथ निवास करें अर्थात इष्टानिष्ट विषयों को उदासीन रूप से ही देखता हुआ और परीषह उपसर्गों को सहन करता हुआ निर्ग्रन्थ जैन मुनि महात्मा गीतार्थ मुनियों के साथ उपाश्रय में निवास करें और 'अकंतदुक्खी तसथावरा दुही' अकान्त दुःखी जीवों को याने असातावेदनीय रूप अकमनीय अर्थातू अवां. च्छनीय अनिष्ट दुःखों का भागी त्रस स्थावरों याने द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय रूप त्रस जीवों को तथा एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक वगैरह पांच स्थावर रूप दुःखी जीवों को 'अलूसए सव्वसहे महामुणी' अलूषित करता हुआ ઝંઝાવાતથી પણ પર્વત કંપાયમાન થતું નથી એજ પ્રમાણે સંયમનિષ્ઠ નિર્ગસ્થ મુનિ ઉપરોક્ત પરીષહ અને ઉપસર્ગોથી એટલે કે અનાર્ય દુષ્ટ જનેના ઉપદ્રવથી ચલિત થતા નથી. આ રીતે પર્વતાધિકારનું કથન પૂર્ણ થયું. वे ३५यापि४२ने उद्देशाने नि३५५५ ४२१भाटे सूत्रा२ ४ छे. 'उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे' ष्ट भने मनिष्ट विषयोमा मध्यस्थ मापने माश्रय ४रीने त८२५ पाथी । પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરીને કુશળ અર્થાત ગીતાર્થ મુનિઓની સાથે નિવાસ કરે. અર્થાત્ ઈટાનિષ્ટ વિષયોને ઉદાસીન પણુથી જોઈને પરીષહ ઉપસર્ગોને સહન કરતાં नि-भुनिये गीता भुलियोनी सा उपाय निवास ४२३॥ तथा 'अकंतदुक्खी तस. थावरा दुही' Asia भी याने मात मसातवहनी ३५ समनीय Aiछनीय मनिष्ट દુઃખના ભાગી ત્રસસ્થાવર અર્થાત્ દ્વીન્દ્રિય ત્રીન્દ્રિય ચતુરિન્દ્રિય પંચેન્દ્રિય ત્રસજીને तथा मेन्द्रिय पृथिवीय विशेरे पाय स्था१२३५ मी लाने 'अलूसए सव्वसहे महा श्रीमायारागसूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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