SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् १९४३ सरसप्रकामपानभोजनमोक्ता न भवति नापि मात्रातोऽधिकपानभोजनमोक्ता साधुर्भवतीत्यर्थः, तत्र हेतुमाह- केवली व्या-आयाणमेयं' केवली केवलज्ञानी-भगवान् जिनेन्द्रः ब्रूयाद्-आह, आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत-अधिकसरसपानभोजनं कर्मवन्धकारणं भवतीति शेषः, तह-'अइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे' अतिमात्रपानभोजनभोजीसाधुमर्यादाधिकाशनपानादि-मात्राधिकपानभोजनकर्ता स निम्रन्थः 'पणीयरसभोपणभोई' प्रणीतरसभोजनमोजी-सरसात्यन्तपानभोजनकर्ता 'संतिमेया जाव भंसिन्जा' शान्तिभेदक:चारित्रसमाधिभेदको भवति, यावत्-शान्तिविभञ्जक:-ब्रह्मवयरूपशान्ति विभङ्गकारको भवति, एवं शान्तितः केवलज्ञानितीर्थकुन् प्रतिपादितात् धर्मात जैनधर्मात् अश्येत्भ्रष्टो भवेत् तस्मात् 'नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे' नातिमात्र पानभोजनमोजी-मात्रा. सरसपान भोजन करनेवाला होता है यह वास्तव में सच्चा निर्गन्ध जैन साधु नहीं कहा जासकता, एतावता जैन साधु को सरसपान भोजन भोक्ता नहीं होना चाहिये तथा मात्रा से अधिक पान भोजन भोक्ता भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि 'केवलीबूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि यह अर्थातू 'आयाणमेयं मात्रा से अधिक पान भोजन करना और सरसपानभोजन करना आदान कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि 'अइमत्तपाण भोयणभोई से निग्गंथे' अत्यधिक पान भोजन करनेवाला जैन साधु और 'पणीयर स भोयणभोई' सरस भोजन करनेवाला निर्गन्ध जैन साधु 'संतिभेया' शान्ति भेदक होता है याने चारित्र समाधि का भंग करने वाला होता है और 'जाव भसिज्जा' यावत् शान्ति विभंजक भी होता है अर्थात् ब्रह्मचर्यरूप शान्ति का भंग कारक भी समझा जाता है तथा शान्तिपूर्वक केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी से प्रतिपादित जैनधर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है इसलिये 'तम्हा नाइमत्ताणभोयणभोई से निग्गंथे' जो साधु प्रमाण मात्रा से अत्यधिक पान તે ખરી રીતે સાચા નિર્ચસ્થ મુનિ કહી શકાતા નથી, એટલે કે-જૈનમુનિએ સરસ પાન ભજન ભોક્તા થવું નહીં. તથા માત્રાથી વધારે પાનભોજન ભોક્તા પણ ન થવું. કેમકે 'केवलीबूया आयाणमेयं' पानी पीत। तीय ४२ भगवान् श्रीमहावीर स्वामीथे ४ह्यु છે કે-આ અર્થાત માત્રાથી વધારે પાનભોજન કરવું અને સરસ પાને ભોજન કરવું એ माहान-मर्थात् धनु ४२५४ मनाय छे, म है 'अइमत्तपाणभोयणभोइ से निगथे' सत्यपि भोजन ४२वा निमुनि मन 'पणीयरसभोयणभोइ संतिभेया' सरस पान लोशन ४२वापानिजयमुनि शांति से डाय छ, 'जाव भंसिज्जा' तथा वित्र समाधिना પણ ભંગ કરવાવાળા હોય છે અને યવત શાંતિ વિભંજક પણ હોય છે. અર્થાત બ્રહ્મચર્યરૂપ શાંતિના ભંગકારક પણ કહેવાય છે તથા કેવળજ્ઞાની ભગવાન વીતરાગ તીર્થ. ४रे प्रतिपादन ४२स न यम थी पर भ्रष्ट थाय छ, 'तम्हा नाइमत्तपाणभोयणभोइ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy