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________________ १०३ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ ० ४० पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् जन्तुरक्तक्षुद्रकोट जलवृत्तिका मर्कटसमूहयुक्ता पन्थानः सन्तीति पूर्वेणान्वयः अपि च ' णो जत्थ बहवे समणमाहणा जाव उवागमिस्संति' नो यत्र संखड्याम् बहवः श्रमणब्राह्मणाःश्रमणाः चरकशाक्यप्रमृतयः ब्राह्मणाः द्विजातयः यावत् - अतिथिकृपणवनीपकाः अतिथयः आकस्मिकागन्तुकाः कृपणाः अल्पव्ययिनः, वनीपकाः याचकविशेषा अन्धवधिरदरिद्रोप्रभृतयो बहवो न उपागताः सन्ति, नापि उपागमिष्यन्ति, अत एव 'अप्पाण्णावित्ती' अल्पाकीर्णाः अल्पैरेव चरकशाक्यादिभिः व्याप्ताः सन्तीति वृत्ति:- वर्तनं 'पण्णस्स' प्राज्ञस्य जिन कल्पकप्रभृति साधोः 'निक्खमण पवेसाए' निष्क्रमणप्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, एवं 'पण्णस्स वायणपुच्छण परियहणाणु पेहधम्माणुओगचिंताए' प्राज्ञस्य साधोः वाचनाप्रच्छना परिवर्तनानुप्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै, वृत्तिः कल्पते 'सेवं णच्चा' स साधुः एवं पूर्वोक्तरीत्या अल्पदोष संखर्डि ज्ञात्वा 'तहप्पगारं ' तथाप्रकाराम् अल्पदोषसहितां ' पुरेसंखडि वा पच्छा 'णो जत्थबहवे समणमाहणा जाव उद्यागमिस्संति' जिस संखडी में बहुत श्रमण चरक शाक्य वगैरह साधु संन्यासी एवं बहुत ब्राह्मण यावत्-बहुत अतिथि बहुत कृपण दरिद्र, बहुत वनीपक याचक नहीं आये हैं और आनेवाले भी नहीं है इसलिये 'अप्पाण्णा वित्ती' अल्प थोडे ही चरक शाक्य प्रभृति से व्याप्त होने से भाव साधु की वृत्ति वर्तन अधिक संकीर्ण नहीं होगा इसलिये 'पण्णस्स णिक्ख मणपवेसाए' प्राज्ञस्य निष्क्रमण प्रवशाय प्राज्ञस्य उसमाज्ञ साधु का उस संखडी में प्रवेश और निष्क्रमण करने के लिये वृति में कोई बाधा नहीं होने से संयम की विधाना नहीं हो सकती, इसी तरह 'पण्णस्स वायण-पुच्छण परियहणापेहधम्माणुओग चिंताए' 'प्राज्ञ साधु का वाचना धार्मिक पुस्तकों का वाचना तथा प्रच्छना - पूछना एवं परिवर्तना - आवृत्ति करना एवं अनुप्रेक्षा- विचार करना तथा धर्मानुयोग चिन्तायै-धर्मानुयोग चिन्तन के लिये वृत्ति हो सको हैं 'सेव णच्चा' स एवं ज्ञात्वा वहसाधु उक्तरीति से संखडी को अल्प दोष वाली समझकर 'तहपगारं पुरे संखडिं वा पच्छा संखडिवा' इस तरह की संखडी २२४ शा४य विगेरे साधु संन्यासी मने धणा श्राह्मये। 'जाब उवागमिस्स 'ति यावत् धा અતિથિ, ઘણા કૃપણા, દરિદ્રો ઘણા યાચકા ન આવ્યા હોય અને આવનારા પણ ન होय तेथी "अप्पाण्णावित्ती' थोडा ४ २२४ -शास्य विगेरेथी व्याप्त होवाथी भाव साधुनी वृत्ति वधारे सडी थती नथी तेथी 'पण्णस्स णिक्खनणपवेसाए' से प्राज्ञ साधु साध्वीने એ સંખડીમાં પ્રવેશ અને નિષ્ક્રમણ કરવા માટે વૃત્તિમાં કોઈણ જાતની બાધા ન થવાથી संयमनी विराधना थती नथी. खेन प्रमाणे 'पण्णस्स वायणपुच्छण परिणाणुपेहधम्मा णुओग चिंताए' प्राज्ञ साधुनुं वांयना, अर्थात् धार्मिक पुस्तौनु वयन तथा पृरछना-पूछयु તથા પરિવતના— આવૃત્તિ કરવી તથા અનુપ્રેક્ષા-વિચાર કરવા તથા ધર્માનુયોગ ચિંતન भाटे वृत्ति यह शडे छे. 'सेवं णच्चा' ते साधु सेवी रीते लखीने 'तहपगारां पुरे संखडि શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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