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________________ ममप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् 'अहावरा दुच्चा भावणा'-अथ अपरा-अन्या द्वितीया भावना प्ररूप्यते-'मणं परियाणइ से निग्गंथे' यः खलु मनः परिजानाति-पापमयी विवारणातः पृथक् करोति स निग्रन्थः साधुः किन्तु 'जे य मणे पावर सावज्जे सकिरिए' यच्च पुनः मनः पापकम्-पापयुक्तम्, सावधम्पापरूपं, सक्रियम्-क्रियायुक्तम्, 'अण्डयकरे छेयकरे भेयकरे' आस्रवकरम्-कर्मबन्धकरम्, छेदकरम्-प्राणिच्छे दनकरम्, भेद करम्-प्राणिभेदनकारकम् 'अहिगरणिए पाउसिए' आधिकरणिकम्-कलहकरम्, प्राद्वेषिकम्-द्वेषकारकम् पारियाविए पाणाइवाइए' पारितापिकम् - परितापजनकम्, प्राणातिपातकम्-प्राणातिपातकारकम्-जीवघातकम् 'भूओवधाइए' भूतोपघातिकम्-भूतोपघात करम् मनो यदि वर्तते तर्हि 'तहप्पगारं मणं नो पधारिजा' तथाप्रकार"अहावरा दुच्चा भात्रणा'-यह सर्व प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत की दूसरी भावना यह है कि-जो साधु 'मणं परियाणइ से निग्गंथे' अपने मन को या दूसरे के मन को पापमयी विचारणा से अलग कर देता है वही सच्चा निग्रंथ साधु हो सकता है या सच्चा साधु कहलता है किंतु जिस साधु का'जे य मणं पावए सावज्जे सकिरिए' मन पापयुक्त है और सावद्य याने पाप रूप है और सक्रिय अर्थात् क्रिया युक्त है एवं-'अण्हयकरे छेधकरे भेयकरे'-आस्रव कारक है अर्थात् कर्मबंध करने वाला है तथा छेदकर अर्थातृप्राणियों का छेदन करनेवाला है एवं भेदकर याने प्राणियों का भेदन करनेवाला है तथा 'अहिगरणिए' आधिकरणिक-याने कलह झगड़ा करने वाला है और पाउसिए'प्रादेषिक अर्थात् द्वेष करनेवाला है तथा 'पारिघाविए पाणाइवाइए' पारितापिक अर्थात् परिताप जनक है और जो मन प्राणानिपातक अर्थात् प्राणियों का घातक है एवं-'भूओवघाइए' भूतों का उपघातक है-'तहप्पगारं मणं नो पधारिजा' હવે સર્વ પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ પહેલા માત્રની બીજી ભાવનાનું નિરૂપણ કરવા भाटे सूत्र४२ ४ थे-'अहावरा दुच्चा भावणा' सब प्रातिपात विभ३५ पडता महानतनी भी भावना से छे ४-'मणंपरियाणइ से निगंथे' २ साधु पोताना मनन કે અન્યના મનને પાપમય વિચારથી અલગ કરી દે છે. એજ સાચા નિગ્રંથ સાધુ કહેવાય छ. ५२ रे साधुनु 'जे य मणे पावए' भन पापयुत छे. मने 'सावज्जे' साप मर्यात पा५३५ ॥ छ, 'सकिरिए' तया सठिय अर्थात् यिायुत छ. तथा 'अण्हयकरे' मास१४॥२४ छ मर्यात मध ४२वावाणुछे, 'छेयकरे' ४६४२ अर्थात् प्राणियानु छेदन ४२वावाणुछ. मन 'भेदकरे' ले।४२ अर्थात् प्राणियानुन ४२वायु छ. 'अहिगरणिए' मधि:२४ मर्थात् ४ घ31 ४२१ावा छे. 'पाउसिए' प्रादेषि पर्थात् द्वेष ३२वा छे तथा तथा 'परिया विए' परिताप अर्थात् परितापन छ, भने २ भन 'पाणाइवाइए' प्रा. तिपात अर्थात् प्राणि यात ४२नार छ. म 'भूओवघाइए' भूताना Gand ४२नार छ. 'तहप्पगारं मणं णो पधारिज्जा गमणाए' मा प्रा२ना भनन धारण ४२वावा साधु गमन श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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