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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० ३२ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् मृत्तिकामर्कटाः एतेषां सन्तानसमूहो येषु ते तथाविधः प्राणियुक्ताः पन्थानः स्युरित्यर्थः 'बहये तत्थ' तत्र संखडिस्थाने प्राप्तस्य च साधोः बहवः अनेके 'समणमाहण अतिहिकिवणवणीमगा' श्रमणब्राह्मण अतिथिकृपणवनीपकाः श्रमणाः शाक्यचरक भिक्षुप्रभृतयोऽन्ययूथिकाः ब्राह्मणाः अन्यतीर्थिका द्विजातिप्रभृतयः अतिथयः कृपणाः संकुचितवृत्तयः क्षुद्रवृत्तयो वा, वनीपकाः याचकाः अन्धवधिरदरिद्रप्रभृतयः 'उवागया' उपागताः उपस्थिताः स्युः 'उवागमिस्संति' उपागमिष्यन्ति उपागच्छन्ति च, 'तत्थाइन्नावित्ती' तत्र चरकशाक्यप्रभृतिभिक्षुकैः आकी संकीर्णा वृत्तिः - साधूनां वर्तनं स्यात् तथा च संयमविराधना आपद्येत, तस्मात् 'णो पश्नस्स निक्खमण पवेसाए' तंत्र प्राज्ञस्य संयमपालकस्य साधोः निष्क्रमणप्रवेशाय वृत्तिः कल्पते इतिशेषः एवं ' णो पद्मस्स वायणपुच्छण परियहणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए' नो नापि वा प्राज्ञस्य साधोः वाचनाप्रच्छना - परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा धर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिः संभक्षुद्रजन्तु विशेष वाला एवं पनक- रक्तवर्ण युक्त क्षुद्रकीटफनगा वाला एवं उदक पानी से मिश्रित गिली मिट्टोवाला तथा मर्कट-मकडे का जाल से युक्त, इसप्रकार का रास्ता होगा एवं 'बहवे तत्थ समणमाहण अतिहि किवण चणीमगा उचा गया, उवागमिस्संति' वहां पर बहुत से श्रमण साधु संन्यासी - ब्राह्मण अतिथि कृपण-दरिद्र, - वनीक - याचक लोग आये होंगे और आनेवाले भी होंगे 'तस्थ इण्णा वित्ती' - उस संखड़ी में चरक शाक्य प्रभृति भिक्षुकों से भाव भी साधु की संकीर्णवृत्ति - अस्तव्यस्त वर्तन हो जायगा और संयम की विराधना भी हो जायगी, इसलिये 'णो पण्णस्स क्खिमणपवेसाए' प्राज्ञ - संयम पालन करने वाले साधु को उस संखडी में निष्क्रमण प्रवेश करना ठीक नहीं होग एवं 'णो वायण पुणपरियहणाणुपेह' प्राज्ञ संयमशील साधु को स्वाध्यायादिका वाचन चांचना प्रच्छन- पूछना परिवर्तन - आवृत्ति करना, अनुप्रेक्षा- विचार परामर्श करना और 'धम्माणुजोग चिंताएं' धर्म विषयक प्रश्नोत्तरादि चिन्तन के लिये भी बाधा पडेगी, इसलिये 'सेवं णच्चा तहप्पगारं पुरे संखडिं वा पच्छा संखर्डि ९९ રંગના જીણાકીટવાળા તથા પાણીથી મળેલ લીલી માટીવાળા તથા મકાડાના જાળવાળા रस्ता इथे, तथा 'बहबे तत्थ समणमाद्दणअतिहि किवणवणीमगा' त्यां भागण धथा सेवा શ્રમણ સાધુ સન્યાસી બ્રાહ્મણુ, અતિથિ, કૃપણુ, દરિદ્ર અને યાચક આવેલ હશે અને भावनारा पशु डुशे ‘तत्थाइण्णा वित्ती' से साडीमां यर-शाहय विगेरे लिभुमेथी लाव साधुयोनी वृत्ति अस्तव्यस्त यहाँ नशे तथा संयमनी विराधना पशु थशे तेथी 'णो पण्णसक्खिमणपवेसा' संयमनु' पासन पुरवावाणा साधुये मे संजडी मां निष्कुभाणु अवेश ४२व। यो रोमर नथी. तेभन 'णो वायणपुच्छणपरियणाणुपेहधम्माणुओग चिंताए ' સૉંયમશીલ સાધુ સાધ્વીએ સ્વાધ્યાયાદિના વાચન, પ્રચ્છન, પરિવર્તન, અનુપ્રેક્ષા વિચાર વિમશ કરવે અને ધર્માનુંયેગ ચિંતા અર્થાત્ ધમ સંખી પ્રશ્નોત્તરાદિ ચિંતન શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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