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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० ९ अ. १५ भावनाध्ययनम् १०७९ दक्षिणभागस्थितं केशमिति शेषः 'वामेणं वाम' वामेन-वामहस्तेन, वामम्-वामभागस्थितं केशमितिशेषः 'पंचमुद्रियं लोयं करेइ' पञ्चमुष्टिकम्-पञ्चमुष्टि परिमितम्, लोचम्-लुश्चनम् केशोत्पाटनं करोति, पञ्चमुष्टि परिमितान् केशान् उत्पाटयतीत्यर्थः 'तओणं सक्के देविदे. देवराया' ततः खलु-पञ्चमुष्टिलोचानन्तरम् शक्रो देवेन्द्रः देवराजः 'समणस्स भगवो महा. वीरस्स' श्रम गस्य भगवतो महावीरस्य 'जन्नुवायपडिए' जानुपादपतितः-जानुपादानां पात. नपूर्वकम् अवनतो भूत्वा 'वइरामएणं थालेणं' वज्रमयेन स्थालेन-वज्रमयस्थाले 'केसाई पडिच्छई केशान् प्रतीच्छति-प्रतिगृह्णाति 'पडिच्छित्ता' प्रतीष्य-प्रतिगृह्य 'अणुनाणेसि भंतेत्ति कटु' भदन्त ! अनुजाना सि-अनुमन्यसे यदित्वम अनुगृह्णासि माम् इति कृत्वा-इति रीत्या भगवन्तं स्व जीतव्यवहारतः आपृच्छय केशान् गृहीत्वा 'खीरोयसागरं साहरई' क्षीरोदकतरफ के मस्तक में विराजमान केशो को और-'वामेणं वामं' वामहस्त से अर्थातू बांया हाथ से वांएं तरफ के शिरस्थ केशों को-'पंचमुट्टियं लोयं करेइ' पञ्चमुष्टि याने पांचमुट्टीप्रमाण लोच किया याने पांचमुष्ठि परिमित केशों को लुश्चन किया 'तओणं सके देविंदे देवराया' ततः उसके बाद अर्थात् पांचमुट्ठी केशों को लुश्चन करने के बाद शक देवेन्द्र देवराज ने-'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमण भगवान् वीतराग श्रीमहावीर स्वामी के मस्तक से लुञ्चित केशों को-'जन्नुगयप डिए' जानुपादों को अवनमितकर याने अपने दोनों घुटनों को चरणों को झुकाकर अत्यंत श्रद्धाभक्तिपूर्वक याने श्रद्धाभक्ति के साथ-'वरामएणं थालेणं केसाई पडिच्छइ' वज्रमय पात्र में केशों का प्रतिग्रहण किया और-पडिच्छित्ता' प्रतिग्रहण कर अर्थात् भगवान् श्रीमहावीर के पांचमुट्ठो लुश्चित केशों को वज्रमय थाली में रखकर 'अणुजाणेसि भंतेत्ति कटु खीरोयसागरं साहरई' हे भदंत ! आपकी अनुमति हो तो मैं इन पांच मुष्टि प्रमाण केशों को क्षीर सागर में रखआउ ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज शक्र भगवान श्रीमहावीर स्वामी को अपने श्रम भगवान् श्रीमहावीर स्वामीथे 'दाहिणेणं दाहिणं' भएयथी भी मानना मात, ५२ २३। शोने भने 'वामेणं वाम' माथी भी माना मस्ताना पाणीन 'पंचमुट्ठी लोयं करेइ' ५ यमुष्ट सट पाय मुही प्रभ. बाय ४यो, ससे पायी જેટલા કેશનું લુચન કર્યું એટલે કે મસ્તક પરથી એટલા પ્રમાણના વાળોને પોતાના હાથે उपाया. 'तओ णं सक्के देविंदे देवराया' ते पछी अर्थात् ५ यमुष्टी शोना वाय या पछी हेवेन्द्र हेव२।४ शई 'समणस्स भगवाओ महावीरस्स जन्नुवायपडिए' भगवान् श्रीमहावीर સ્વામીના મસ્તક પરથી કેશોને લેચ કર્યા પછી જાનુ અને પગને નમાવીને એટલે કે पोताना भन्ने गाड मने पसीने नमावीन अत्यंत श्रद्धा भने भारत ४ वइरामएणं थालेणं केसाई पडिच्छई' न थाणमा ते शो अहए। ४ा भने 'पडिच्छित्ता' प्रह કરીને અર્થાત્ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીના પંચમુષ્ટિ લોચ કરેલ કેશોને વજની थाणीमा मीन 'अणुजाणिसि भंतेत्ति कटु' ३ मावान् मापनी समति डाय तो मा श्री माया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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