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________________ १०६२ आचारांगसूत्रे घण्टाभिः पताकाभिश्च सुशोभिताग्रभागाम्, एतादृशीम् 'पासाईयं' प्रासादी याम्-प्रासाद नीयाम्-प्रसादयोग्याम् 'दरिसणिज्न' दर्शनीयाम्-दर्शनयोग्याम् 'सुरूवं' सुरूपाम्-मनोहराम् शिषिकाम वैक्रियसमुदातेन निष्पादितवान् इत्यर्थः सम्मति पूर्वोक्त शिविका दिविषये किश्चिद् विशेषवक्तव्यताम् एकादशश्लोकैः प्ररूपयितुं प्रथमं श्लोकमाह-'सोया उवणीया जिणवरस्स, जरमरणविषमुक्कस्स' शिविका (पालकी) उपनीता-उपस्थापिता शक्रादिभिर्देवेन्द्रैः जिनवरस्य-जिनेन्द्रस्य जरामरण विप्रमुक्तस्यजरामृत्युरहितस्य भगवतो महावीरस्य कृते इत्यर्थः कीदृशी सा शिषिका इत्याह-'ओसत्तम ल्लदामा जलथल यदिबकुसुमेहिं । १॥ अवसक्तपाल्पदामा जलस्थलजदिव्य कुसुमैः-जलस्थलोत्पन्नदिव्यपुष्पसदृशैः वैक्रियसमुद्घातक्रिया निष्पादितैः दिव्यपुष्पैः रचितमालासमूह घण्टापताका प्रतिमण्डिताप्रशिखरा अर्थात् अनेक प्रकार के पश्चवर्णों से युक्त इन्द्रनीलमणि मरकतमणि पद्मरागमणि वगैरह से तथा घण्टा एवं पताकाओं से प्रतिमण्डित सुशोभित अग्रभाग वाली तथा 'पासाइयं' प्रसाद नीय प्रसाद योग्य याने अत्यंत आनंद देने वाली एवं 'दरिसणिज्ज' दर्शनीय याने दर्शन योग्य तथा 'सुरूवं' सुरूप अत्यंत मनोहर शिविका को शक्रादि देवोंने वैक्रिय समुद्घात क्रिया द्वारा निष्पादित किया। अब उपर्युक्त शिविका के बारे में कुछ विशेष वक्तव्यता को एकादश श्लोकों द्वारा प्रकाशित करने के लिये सब से पहले प्रथम श्लोक का निरूपण करते हैं'सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स, ओसत्तमल्लदामा जलथलय दिव्व कुसुमेहिं ।। १ ।। शक्रादि देवेन्द्रोंने जिनवर-जिनेन्द्र तथा जरामरण विप्रमुक्त याने बुढापा और मृत्यु से रहित भगवान वीतराग तीर्थ कर श्रीमहावीर वर्द्ध मान स्वामी के लिये जल स्थल में उत्पन्न दिव्य पुष्पों के सदृश वैक्रिय समुदघात क्रिया द्वारा निष्पादित दिव्य पुष्पों से रचित अनेक मालाओं से सुसज्जित મણી, પારાગ મણિ વિગેરેથી તથા ઘંટા તથા પતાકાઓથી સુશોભિત અગ્રભાગ વાળી तथा 'पासाइयं' प्रसाहनीय अर्थात् प्रसाहन यो२५ मेट 3 अत्यंत मान २५वावाणी तथा 'दरिसणिज्' ४शन ४२१॥ योज्य तथा 'सुरूवं' अत्यंत मनोड२ सेवी से शिमिहान ઇંદ્રાદિ દેવોએ વૈકિય સમુદ્રઘાત દ્વારા તૈયાર કરી. હવે ઉપર્યુકત શિબિકા વિષે વિશેષ વકતવ્યતા અગીયાર લેકે દ્વાશ ગ્રંથકાર બતાવે છે. 'सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स, ओसत्त मल्लदामा जलथलयदिव्वकुसुमे हि, ॥१॥ શક્રાદિદેવેન્દ્રોએ જીનેન્દ્ર કે જેઓ મરણથી વિપ્ર મુક્ત અથૉત્ વૃદ્ધત્વ અને મરણથી રહિત એવા વીતરાગ ભગવાન વાદ્ધમાન મહાવીર સ્વામી માટે જલ સ્થળમાં ઉત્પન્ન થયેલ દિવ્ય પુષે ની જેમ ક્રિય સમુદ્યાત ક્રિયા દ્વારા બનાવેલ દિવ્ય પુપે અને માળાઓથી શણગારેલ શિબિકા ત્યાં લાવ્યા. અર્થાત્ ઇંદ્રાદિ દેવ ભગવાન શ્રી મહાવીર श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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