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________________ ५५० [५] विषय पृष्टाङ्क २५ भगवान् षड्जीवनिकायोंके स्वरूपको जान कर उनके आरम्भ का परिहार करते हुए विचरते थे। २६ तेरहवीं माथाका अवतरण, गाथा और छाया। ५५१ २७ 'ये पृथिवी आदि षड्जीवनिकाय सचित्त हैं । ऐसा विचार कर उनके स्वरूप और भेद-प्रभेदोंको जान कर उनके आरम्भ को परिवर्जित करके विचरते थे। ५५१ २८ चौदहवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया । ५५१-५५२ २९ स्थावर जीव त्रस हो कर उत्पन्न होते हैं, और त्रस जीव स्थावर हो कर । अथवा सभी जीव अपने उपार्जित कर्मानुसार सभी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं। ५५२-५५३ ३० पन्द्रहवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया। ५५३ ३१ भगवानने इस प्रकार समझा कि ये मोहयुक्त प्राणी द्रव्य और भाव उपधिसे युक्त हो कर कर्मके प्रभावसे क्लेशका अनुभव करते हैं । इस लिये भगवान् ने सभी प्रकारके कर्मों का परित्याग कर दिया। ३२ सोलहवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया। ५५४ ३३ भगवानने दोनों प्रकारके कौंको जानकर और आदानस्रोत, अतिपातस्रोत और दुष्पणिहित मनोवाकायको कर्मबन्धका कारण जान कर संयमको पाला। ५५४-५५५ ३४ सत्रहवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया । ५५५ ३५ भगवानने हिंसाको सर्वथा छोड कर अहिंसाका उपदेश दिया उन्होंने स्त्रियोंको सकल कर्मबन्धका मूल समझा, इस प्रकार उन भगवान्ने संसारके यथावस्थित स्वरूपको देखा। ३६ अठारहवीं गाथाका अवतरण, गाथा और छाया । ५५६ ३७ वे भगवान् आधाकर्मादिदोषयुक्त आहारादिको ज्ञानावर णीयादि कमौका बन्ध समझा, इसीलिये उन्होंने उसका सेवन ५५३ ५५५ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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