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________________ M [६७] विषय पृष्ठाङ्क ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण, द्वितीय सूत्र और छाया । ४९१ ४ उस संयममें पराक्रम करते हुए उस अचेल साधुको तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श और दंशमशकस्पर्श प्राप्त होते हैं । वह साधु उन स्पर्शों को तथा अन्य भी विविध स्पर्शों को सहता है। उसकी आत्मा लाघवयुक्त होती है । उसका यह अचेलत्व तप ही है । उस साधुकी यह भावना सर्वदा होनी चाहिये कि भगवान्ने जो कहा है वह सर्वथा संगत है। ४९१-४९२ तृतीय मूत्रका अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया। ४९२-४९३ जिस भिक्षुको यह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओंके लिये अशन आदि ला कर दूंगा और दूसरोंके लाये हुए अशनादिकको स्वीकार भी करूँगा १ । जिस भिक्षुको यह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओंके लिये अशनादिक ला कर दूंगा और दूसरेके लाये हुए अशनादिकको स्वीकार नहीं करूँगा। जिस भिक्षुको यह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओंके लिये अशनादिक लाकर नहीं दूंगा, परन्तु दूसरेके लाये हुए अशनादिकको स्वीकार करूँगा ३। जिस भिक्षुको यह होता है कि-मैं दूसरे भिक्षुओंके लिये अशनादिक ला कर नहीं दूंगा और न दूसरेके लाये हुए अशनादिकको स्वीकार करूँगा ४ । ये चार प्रकारके अभिग्रहधारी मुनि होते हैं । पांचवे प्रकारके अभिग्रहधारी मुनि होता है। जिसका अभिग्रह इस प्रकारका होता है कि मैं अपनेसे बचे हुए एषणीय अशनादिकद्वारा साधर्मियों की वैयावृत्य करूंगा और साधर्मिकोंके द्वारा भी अपनेसे अवशिष्ट दिये गये एषणीय अशनादिकको स्वीकार करूंगा। ४९४-४९६ चतुर्थ सूत्रका अवतरण, चतुर्थ मूत्र और छाया । ४९७ ८ जिस साधुको यह मालूम हो कि मेरा शरीर अब सशक्त नहीं है वह साधु संथारा करे । उद्देश समाप्ति । ४९८-४९९ ॥ इति सप्तम उद्देश ॥ श्री. सायासूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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