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________________ ४७० विषय पृष्ठाङ्क २ जो भिक्षु एक वस्त्र और एक पात्र के अभिग्रहधारी है, उसको यह भावना नहीं होती कि द्वितीय वस्त्र की याचना करूँगा। वह भिक्षु एषणीय वस्त्र की याचना करे, जो वस्त्र मिले उसी को धारण करे, यावत् ग्रीष्म ऋतु आवे जीर्ण वस्त्र का परित्याग कर देवे । अथवा-एक शाटक धारण करे, अथवा अचेल होजावे । इस प्रकार के मुनि की आत्मा लघुतागुण से युक्त हो जाती है । उस भिक्षु का इस प्रकार का आचार तप ही है। भगवानने जो कहा है वह सर्वथा समुचित है, इस प्रकार यह भिक्षु सर्वदा भावना करे। ३ द्वितीय सूत्र का अवतरण, द्वितीय सूत्र और छाया। ४७०-४७१ ४ जिस भिक्षु को यह होता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ। वह साधु अपने को अकेला ही समझे । इस प्रकार के साधु की आत्मा लघुता गुण से संपन्न होती है उस साधु की यह भावना तप ही है। भगवानने जो कहा हैं वह समुचित ही है, ऐसी भावना वह साधु सर्वदा रखे । ४७१-४७२ ५ तृतीय सूत्र का अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया। ४७२-४७३ साधु अथवा साध्वा आहार करते समय आहार को मुँह के दाहिने भागसे बाये भाग की ओर स्वाद लेते हुए नहीं ले जावे, उसी प्रकार बाये से दाहिने की ओर नहीं ले जावे । इस प्रकार स्वाद की भावना से रहित होकर आहार करना तप ही है । भगवानने जो कहा है वह सर्वथा समुचित ही है, ऐसी भावना साधु को सर्वदा करनी चाहिये। ४७३-४७५ ७ चतुर्थ सूत्र का अवतरण, चतुर्थ मूत्र और छाया । ४७६ ८ जिस भिक्षु को यह होता है कि मैं इस समय ग्लान हूँ, इसलिये इस शरीर को पूर्ववत् परिचर्या करने में असमर्थ हूं। श्री. मायाग सूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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