SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतस्कन्ध. १ लोकसार अ. ५. उ.५ ज्ञानात्मनोरभेदमुपपाद्य करणभूतेन ज्ञानेनाभेदप्रतिपादनायाह-'येने'त्यादि, येन-मत्यादिना ज्ञानेन करणभूतेन क्रियारूपेण वा पदार्थ विजानाति-वि-विशेषेण सामान्यविशेषादिरूपेणेत्यर्थः, जानाति-ज्ञानविषयीकरोति साकारणभूतः क्रियाभूतो वा आत्मा, आत्मनः परिणामित्वात् , अत एव 'स्त्र आत्मानमात्मना जानातीत्यादावेकस्यापि कथञ्चिद्भेदमादाय तथा प्रतीतिः कई-कम-करणक्रियादीनामैक्यादुपपद्यते। ____ ज्ञान और आत्माका अभेद कह कर करणभूत ज्ञानके साथ भी आत्माका अभेद है-इस बातको प्रतिपादन करनेके निमित्त सूत्रकार कहते हैं-"येन विजानाति स आत्मा" कि जिस मति आदि करणभूत अथवा क्रियारूप ज्ञानसे आत्मा पदार्थों को सामान्य और विशेष आदि रूपसे जानता है उस करणरूप या क्रियारूपमें वह आत्मा ही परिणत हुआ है । क्यों कि आत्माका स्वभाव परिणमनशील है, कूटस्थ नित्य नहीं। अतः आत्मा ही उस करणज्ञान अथवा जाननेरूप क्रियासे परिणत हुआ है। "स्व आत्मानम् आत्मना जानाति"-आत्मा आत्माको आत्मासे जानता है-इस वाक्यप्रयोगमें एक आत्मा ही कथंचित् भेददृष्टिकी अपेक्षासे कर्ता, कर्म, क्रिया और करणरूपसे परिणत होता है, आत्मा कर्ता, आत्मानं कर्म, आत्मना करण और जानाति यह क्रिया है। यहां आत्मा ही एक पदार्थ कथंचित् भेदकी अपेक्षासे नानाकारक रूपमें परिणत होता हुआ प्रकट किया गया है। ऐसा होने पर भी आस्मारूप पदार्थ में अनेकता-परस्परमें कर्ता कर्म आदिमें भिन्नता सिद्ध नहीं होती है। જ્ઞાન અને આત્માને અભેદ કહી કરણભૂત જ્ઞાનની સાથે આત્માને અભેદ छ २॥ पातने प्रतिपाहन ४२di सूत्र४२ ४ छे “ येन विजानाति स आत्मा" જે મતિ આદિ કરણભૂત અથવા ક્રિયારૂપ જ્ઞાનથી આત્મા પદાર્થોને સામાન્ય અને વિશેષ આદિ રૂપથી જાણે છે તે કરણરૂપ અથવા ક્રિયારૂપમાં તે આત્મા જ પરિણત થયેલ છે. કેમકે આત્માને સ્વભાવ પરિણમનશીલ છે, ફૂટસ્થ નિત્ય નથી. માટે આત્મા से ४ ४२५५ शान भने ३५ छियाथी परिशुत येत छ. “ स्व आत्मानम् आत्मना जानाति " मात्मा सामान सामाथी त छ, सा पायप्रयोगमा એક આત્મા જ કહેલા ભેદદષ્ટિની અપેક્ષાથી કર્તા, કર્મ, ક્રિયા અને કરણરૂપથી परिणत भने छे. आत्मा xi, आत्मानम् ४, आत्मना ४२९भने जानाति આ ક્રિયા છે. અહિં આત્મા જ એક પદાર્થ કહેવાયેલા ભેદની અપેક્ષાથી નાના श्री. मायाग सूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy