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________________ ४८ आचारास्त्रे पाणिनः, कर्मकोविदाः-कर्मणि आरम्भसमारम्भादौ कोविदाः दक्षास्तत्परा इत्यर्थः, न तु धर्माचरणे, ये च अनुपरताः सावधव्यापारेभ्योऽपराङ्मुखाः, अविद्यया रत्नत्रयं विद्या, तद्विपरीता अविद्या, तया परिमोक्षं परि-सर्वतो मोक्षम् आत्मनः कर्मापनयनम् , आहुः कथयन्ति । ते धर्मानभिज्ञाः कर्मबन्धकोविदाश्च विषयव्यालविषकवलिताः, आवर्त-भावावर्त संसारमेव अनुपरिवर्तन्ते-अनन्तभवजनकं कर्म समुपायं तत्रैव मुहुर्मुहुर्धाम्यन्तीत्यर्थः, चारित्रदोषेषु क्रोधाद्याधिक्येन चैकचर्या-प्राणी कर्मकोविद आरम्भ समारम्भ आदि कमों में निपुण होती है, धर्म में नहीं । "प्रकर्षण जायन्ते इति प्रजाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार समुपार्जित कमें के उदय से जो बार बार चतुर्गतिरूप संसार में जन्म धारण करते हैं उनका नाम प्रजा-प्राणी हैं। “ये अनुपरता अविद्यया परिमोक्षमाहुः” जो सावध व्यापारों से अपराङ्मुख हैं वे 'अविद्या से ही सर्व प्रकार से मुक्ति होती है ' ऐसा कहते हैं । रत्नत्रयका नाम विद्या है । इस से जो विपरीत है वह अविद्या है। धर्म से अनभिज्ञ और कर्मबन्ध में कोविद् प्राणी विषयरूपी सर्प के विष से कवलित हो भावावर्तरूप संसार में ही अनुपरिवर्तन करते रहते हैं-अनन्तभवजनक कों का आस्रव और बन्ध कर के उसी संसारमें बारंबार जन्म-मरण करते रहते हैं। चारित्र के दोषों में क्रोधादिक की अधिकता से एकचर्यारूप दोष की प्रधानता है । इससे सावद्य-व्यापारों का आचरण होता है । इस आचरण से विरति का अभाव और उससे उसमें मुनित्व का अभाव होता है । मुनिधर्म का पालक न होने से वह मान सभामा निपु डाय छ, धर्मभानाल. “ प्रकर्षेण जायन्ते इति प्रजाः” मा व्युत्पत्ति अनुसार सभुपानित ना यथा पारवा२ यतुગંતિરૂપ સંસારમાં જન્મ ધારણ કરે છે તેનું નામ પ્રજા-પ્રાણું છે. “ये अनुपरता अविद्यया परिमोक्षमाहुः "२ सावध व्यापारीथी अनिवृत्त છે તે “અવિદ્યાથી જ સર્વ પ્રકારની મુક્તિ થાય છે” તેવું કહે છે. રત્નત્રયનું નામ વિદ્યા છે. આનાથી જે વિપરીત તે અવિદ્યા છે. ધર્મથી અનભિજ્ઞ અને કર્મ બંધમાં કેવિદ પ્રાણી વિષયરૂપી સપના વિષથી કવલિત થઈ ભાવાવર્તરૂપ સંસારમાં અનુપરિવર્તન કરતે રહે છે. અનંતભવજનક કર્મોને આસવ અને બંધ કરીને આ સંસારમાં વારંવાર જન્મ-મરણ કરતે રહે છે. ચારિત્રના દોષમાં ક્રોધાદિકની અધિકતાથી એકચર્યારૂપ દેશની પ્રધાનતા છે. એનાથી સાવધવ્યાપારોનું આચરણ થાય છે. આ આચરણથી વિરતિને અભાવ અને તેનાથી તેનામાં મુનિત્વનો શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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