SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३८ आचारागसूत्रे इह पुरुषस्योपदेशयोग्यतया सामर्थन संनिहितत्वात्तच्छरीरं संनिकृष्टवाचिनेदम्शब्देन परामृश्यते । इदमपि मनुष्यशरीरं, यद्वा-सामान्यरूपेण त्रसकाये चैतन्यस्य सुज्ञेयत्वात् इदं त्रसशरीरं, जातिधर्मकं-जातिः-जननं, तद्धर्मकं-जननस्वभावं, एतदपि वनस्पतिशरीरमपि जातिधर्मक-मनुष्यशरीरवद् वनस्पतिशरीरमपि जननस्वभावकमस्तीत्यर्थः । तथा इदमपि मनुष्यशरीरं वृद्धिधर्मक बालकौमाराद्यवस्थामाश्रित्य वर्धनस्वभावम् , एतदपि वनस्पतिशरीरं अडरकिसळयपत्रस्कन्धशाखाप्रशाखादिना वर्धनशीलम् । इदमपि मनुष्यशरीरं चित्तवत्-चेतना 'इदम्' शब्द का प्रयोग समीपवर्ती वस्तु के लिए किया जाता है । मनुष्य ही उपदेश का पात्र है और उसका शरीर भी अत्यन्त समीप है अतः मनुष्य के शरीर को 'इदम' शब्दद्वारा निर्दिष्ट किया गया है । अथवा त्रस जीव के शरीर में चैतन्य को समझना सुगम है, इस कारण 'इदम्' का अर्थ मनुष्यशरीर के बजाय त्रस जीव का शरीर समझ लेना चाहिए। यह मनुष्यशरीर या त्रस जीव का शरीर उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है । तथा मनुष्य शरीर वृद्धिशील है-बाल, कुमार आदि अवस्थाओं में बढता जाता है उसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अंकुर, किसलय, पत्र, स्कंध, शाखा और प्रशाखा आदि रूप से बढता जाता है। मनुष्यशरीर चेतनावान् है उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी चेतनावान् है, 'इदम् ' शहना प्रयोग सभी वत्ती वस्तु माटे ४२वामा मावे छे. मनुष्य ઉપદેશને પાત્ર છે, અને તેનું શરીર અત્યન્ત સમીપ છે. એ કારણથી મનુષ્યના शरीरने 'इदम् ' द्वारा निष्ट यु छ. अथवा स ना शरीरमा चैतन्यन सभा सुगम छ. २ ४२थी 'इदम् 'नो अर्थ मनुष्य शरीरना महसेस શરીર સમજી લેવું જોઈએ. આ મનુષ્ય શરીર અથવા ત્રસજીવનું શરીર ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળું છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળું છે. તથા મનુષ્ય શરીર વૃદ્ધિશીલ છે–બાલકુમાર, આદિ અવસ્થાઓમાં વધતું જાય છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિશરીર પણ અંકુર, કિસલય-કુમળાં, પાન, પત્ર, સ્કંધ, શાખા અને પ્રશાખા આદિરૂપથી વધે જાય છે. મનુષ્ય શરીર ચેતનાવાન છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ ચેતનાવાન છે. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૧
SR No.006301
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages781
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy