SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 621
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९८ आचारागसूत्रे दीनि । हरितानि-तन्दुलीयक-वस्तुल-मार्जारपादिका-पालक्यादीनि । ओषध्यःशालि-व्रीहि-गोधूम-यव-बजरी-मुद्ग-माषादयः । जलरुहा:-उत्पल-पद्म-कुमुदनलिन-पुण्डरीक-शतपत्र-सहस्रपत्र-कोकनदा-रविन्द-पनक-पनकचट्ट-शैवालादयः। कुहणाः भूमिस्फोटकाऽऽपकाय-सर्पच्छत्रादयः। उक्ताः प्रत्येकशरीरा वनस्पतयः । अथ साधारणशरीराः प्ररूप्यन्ते साधारणनामकर्मोदयादनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति । तस्मात् साधारणमेकं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः । ननु कथमनन्तजीवानामेकं शरीरं संभवति, तथाहि-यः खलु प्रथम कहलाते हैं । तन्दुलीयक, वस्तुल, मार्जारपादिका, पालंकी आदि को हरित कहते हैं। शालि व्रीहि (धान) ओ गेहूँ, जौ, बाजरी, मूग, उडद आदि के पौधे ओषधि कहलाते हैं । उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, पुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र, को कनद, अरविन्द, पनक, पनकचट्ट, शैवाल आदि को जलरुह कहते हैं । भूमिस्फोटक, आपकाय और सर्पछत्र आदि कुहण कहलाते हैं। यहाँ तक प्रत्येकशरीर वनस्पति का विवेचन हुआ । साधारणशरीर का प्ररूपण इस प्रकार है साधारणनामकर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक साधारण होता है । जिनका शरीर साधारण अर्थात् एक हो, वे साधारणशरीर कहलाते हैं । शङ्का-अनन्त जीवों का शरीर एक कैसे हो सकता हो ? क्यों कि पहले वस्तर (मथुवा) मानसपाही, पाली (सुवापास) साहिन हरित ४ छ. टी. प्रालि (धान्य) गेडू-घड, ४१, मा०४२।, भा, २६ माहि भाषधि उपाय छे. Gue, ५भ, भु, नलिन, ४, शतपत्र, सहसपत्र, न, स२विह, पन, પનકચટ્ટ. વાલ આદિને જલરુહ કહે છે. ભૂમિફૅટક, આપકાય અને સર્ષછત્ર माहि-७४ उपाय छे. અહિં સુધી પ્રત્યેક વનસ્પતિનું વિવેચન થયું, સાધારણ શરીરનું પ્રપણ આ પ્રકારે છે સાધારણનામકર્મના ઉદયથી અનન્ત જીવોનું એક સાધારણશરીર હોય છે. જેનું શરીર સાધારણ અર્થાત્ એક હેય તે સાધારણશરીર કહેવાય છે. શંકા અનન્ત જીનાં શરીર એક કેવી રીતે હોઈ શકે છે? કેમકે પહેલ વહેલો શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૧
SR No.006301
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages781
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy