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भवसागर :
सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।। -२३/७३ यह शरीर नौका है, जीव-आत्मा उसका नाविक है और संसार समुद्र है। महर्षि इस देह रूप नौका के द्वारा संसार-सागर को तैर जाते हैं।
मनुष्य अणेगछन्दा इह माणवेहिं।
-२१/१६ इस संसार में मनुष्यों के विचार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य-जन्म : दुल्लहे खलु माणुसे भवे।
-१०/४ मनुष्य जन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है। मर्यादा : माइन्ने असणपाणस्स।
-२/३ खाने-पीने की मात्रा-मर्यादा का ज्ञान होना चाहिए। मान माणेणं अहमा गई।
-६/५४ मान से अधम गति प्राप्त होती है।
माया
मुनि
माया गइपडिग्घाओ।
-६/५४ माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। न मुणी रण्णवासेणं।
-२५/३१ जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता। नाणेण य मुणी होई।
-२५/३२ ज्ञान से मुनि पद प्राप्त होता है।
न रसट्ठाए जिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी। -३५/१७ साधु स्वाद के लिए नहीं, किन्तु जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए भोजन करे। __अउलं सुहसंपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ। -३६/६६ मोक्ष में आत्मा अनन्त सुखमय रहता है। उस सुख की कोई उपमा नहीं है और न कोई गणना ही है।
भोजन
:
मोक्ष
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परिशिष्ट
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