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गये। राजीमती ने उन्हीं का अनुसरण किया। उसने भी दीक्षा ली। रैवतक पर्वत पर विराजित भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शनों के लिये अपनी सखियों के साथ वे जंगल से जा रही थीं। तभी तेज आंधी-तूफान आया। राजीमती एक गुफा में चली गईं। वहां पर प्रभु के सांसारिकभ्राता मुनि रथनेमि ध्यानस्थ थे। आकाशीय बिजली के प्रकाश में रथनेमि ने राजीमती को देखा। उन का मन डावांडोल हो उठा। राजीमती ने उन्हें कहा, "अगंधन कुल का सर्प आग में जल जाता है किन्तु वमित विष को पुनः नहीं पीता। वमन को खाने की चाह श्वान-वृत्ति है और संयम पथ पर अविचलित रहना सिंह-वृत्ति।" बोध पाकर रथनेमि के मन-प्रान्तर से वासना के विचार लुप्त हुए। वे पुनः संयम में स्थिर हुए। साधना-लीन होकर दोनों सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। सचमुच! सन्मार्ग पर आस्था की दृढ़ता से व्यक्ति स्वयं भी परम लक्ष्य तक पहुंचता है और दूसरों को भी पहुंचाता है।
(अध्ययन-22) केशी-गौतम
भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्य-परम्परा के श्रमण थे-केशीकुमार। एक बार वे श्रावस्ती नगरी के तिन्दुक वन उद्यान में तथा भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी श्रावस्ती नगरी के ही कोष्ठक उद्यान में पधारे। दोनों के वेश व सिद्धान्तों में तनिक अन्तर देख जन-मानस सशंकित हुआ। शंका-समाधान हेतु तिन्दुक वन में दोनों महामुनियों के मध्य ऐतिहासिक वार्ता हुई। गौतम स्वामी ने सभी प्रश्नों का समाधान करते हुए बतलाया कि प्रभु पार्श्वनाथ के समय में ऋजु या सरल जन-मानस था, जो अपरिग्रह में ही नारी-भोग-त्याग को सम्मिलित मानता था परन्तु भगवान् महावीर के युग में वक्र जनमानस को समझाने के लिये भगवान् ने ब्रह्मचर्य महाव्रत की पृथक् स्थापना की है। बाहय वेशभषा से या नग्नता से कोई मोक्ष प्राप्त नहीं करता। सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही मोक्ष-मार्ग है। इस वार्ता से केशीकुमार श्रमण ने शिष्यों सहित भगवान् महावीर का धर्म-संघ अपना लिया। समभाव के सुमन चारों ओर खिल उठे। जनमानस की शंकायें निर्मूल हुईं। सचमुच! महापुरुषों की वार्ता से धर्म की बड़ी व्यापक प्रभावना हुआ करती है।
(अध्ययन-23) परिशिष्ट
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