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१२५. इन (वायुकाय जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान
की दृष्टियों से हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
१२६. (त्रसकाय जीवों में) जो 'उदार' (अपेक्षाकृत स्थूलशरीरी) त्रस
होते हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं- (१) द्वीन्द्रिय (स्पर्श व रसना इन्द्रियों वाले), (२) त्रीन्द्रिय (स्पर्श, रसना व घ्राण- इन तीन इन्द्रियों वाले), (३) चतुरिन्द्रिय (स्पर्श, रसना, घ्राण व चक्षु-इन चार इन्द्रियों वाले) और (४) पंचेन्द्रिय (स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु व श्रोत्र- इन पांच इन्द्रियों वाले)।
१२७.(उदार त्रस जीवों में) जो द्वीन्द्रिय जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे
गये हैं- (१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त । (अब) इनके (उत्तर-) भेदों को (भी) मुझसे सुनो।
१२८. कृमि (अपवित्र पदार्थों में पैदा होने वाले), सुमंगल (द्वीन्द्रिय
जीव- विशेष), अलस (अलसिया, केंचुआ, गेंडोआ), मातृवाहक (घुन काष्ठ भक्षण करने वाले),
१२६. (इसी प्रकार) पल्लोय (पल्लक, काष्ठभक्षी जन्तुविशेष), अणुल्लक
(छोटे पल्लोय), वराटक (कोड़ियां), जौंक, जालक (जातक, जीव विशेष), और चन्दनक (अक्ष, चन्दनिया),
१३०. इत्यादि (उपर्युक्त) ये (सभी) नाना प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं।
वे सभी (जीव) सर्वत्र (समस्त लोक में) नहीं, (अपितु) लोक के एक भाग में (ही) व्याप्त (अवस्थित) कहे गये हैं।
अध्ययन-३६
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