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११४. (अपने) उस (तेजस्) काय को नहीं छोड़ें (और उसी काय में निरन्तर उत्पन्न होते रहें) तो (उन) तेजस्काय जीवों की काय-स्थिति उत्कृष्टतः असंख्यात काल की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है ।
११५. तेजस्काय जीवों का, अपने काय (तेजस्काय) को (एक बार) छोड़ देने पर, (और अन्य कायों में उत्पन्न होकर पुनः उसी तेजस्काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण
व आगमन के मध्य का) 'अन्तर- काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल, और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त होता है ।
११६ . इन (तेजस्काय जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों से हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं ।
११७. वायुकाय जीव दो प्रकार के होते हैं- (१) सूक्ष्म, और (२) बादर । फिर (उनके भी) पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार दो-दो भेद होते हैं ।
११८. (वायुकाय जीवों में) जो बादर पर्याप्त हैं, वे पांच प्रकार के कहे गये हैं । (जैसे-) (१) उत्कलिका (रुक-रुक कर चलने वाली, या घूमती हुई ऊंची जाने वाली वायु-हवा), (२) मण्डलिका (धूल आदि के साथ चक्कर खाती हुई, या धरती से लगी चक्राकार घूमती हुई हवा), (३) घनवात (रत्नप्रभा आदि नरक-पृथ्वियों के नीचे बहने वाली, या विमानों के नीचे की घन रूप वायु), (४) गुंजावात (गूंजती-ध्वनि के साथ बहने वाली वायु), तथा (५) शुद्ध वात (उक्त भेदों से रहित, मन्द मन्द चलने वाली सामान्य वायु) ।
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अध्ययन- ३६
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