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________________ ६४. (सिद्ध होने वाले) जिस (जीव) की अन्तिम 'भव' में जितनी ऊंचाई होती है, उससे तीसरा भाग (१/३ भाग) कम (अर्थात् २/३ भाग) अवगाहना सिद्धों की होती है। ६५. एक (सिद्ध जीव) की अपेक्षा से (सिद्ध) सादि व अनन्त है, और पृथक्त्व (सामूहिक या बहुतों) की अपेक्षा से (वे) अनादि व अनन्त भी हैं । ६६. (वे सिद्ध जीव) अरूपी, सघन (छिद्र-रहित सघन प्रदेशों वाले, विज्ञानघन) एवं ज्ञान-दर्शन-सम्पन्न हैं, वे (उस) अतुल सुख को प्राप्त करते हैं जिसकी उपमा (ही) नहीं है । ६७. (इसी प्रकार) ज्ञान-दर्शन (उपयोग) से (सतत) उपयुक्त रहने वाली, संसार से (सर्वदा के लिए) पार पाई हुई एवं 'सिद्धि' (नामक) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर चुकी वे सब (सिद्ध आत्माएं) (पूर्वोक्त) लोकाग्र भाग में (ही अवस्थित रहती हैं। ६८. जो संसारी जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं- (१) त्रस, और (२) स्थावर । उनमें से स्थावर जीव तीन प्रकार के होते हैं । ६६. पृथ्वीकाय, अप्काय जीव, तथा वनस्पति- ये तीन प्रकार के स्थावर (जीव) होते हैं, इनके भेदों को मुझसे सुनें । ७०. पृथ्वीकाय जीव दो प्रकार के होते हैं- (१) सूक्ष्म, और (२) बादर । फिर, इन (में भी प्रत्येक) के दो-दो भेद होते हैं - (१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त । अध्ययन- ३६ 2323 ज ७८३ BAGICHHITS
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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