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५८. (वह ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी) पैंतालीस लाख योजन लम्बाई वाली, और इतने ही विस्तार (चौड़ाई) वाली है, और उसकी परिधि भी (उस लम्बाई-चौड़ाई से) तिगुनी (से कुछ अधिक, अर्थात् एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन) है ।
५६. वह मध्य भाग में आठ योजन मोटाई वाली कही गई है। वह (चारों ओर से क्रमशः पतली-) हीन होती हुई, अन्त (सिरे) में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो जाती है ।
६०. जिनवरों-तीर्थंकरों ने उस पृथ्वी (ईषत्प्राग्भार/सिद्ध शिला) को अर्जुन (श्वेत) स्वर्णमयी, तथा स्वभावतः निर्मल, एवं उलटे छत्र के आकार वाली बताया है ।
६१. वह (पृथ्वी) शंख, अंक-रत्न व कुन्द पुष्प के जैसी (अत्यधिक) श्वेत, निर्मल व शुभ (कल्याण रूप वाली) है । 'लोक' का अन्त तो (इस) 'सीता' (नामक ईषत्प्राग्भारा-सिद्धशिला) से एक योजन ऊपर बताया गया है।
६२. उस (पूर्वोक्त) एक योजन भाग का जो ऊपर वाला कोस २००० धनुष प्रमाण भाग होता है, उस कोस के छठे भाग (अर्थात् ३३३ धनुष व ३२ अंगुल प्रमाण स्थान) में (ही) सिद्धों की अवगाहना (अवस्थिति) होती है ।
६३. वहीं (पूर्वोक्त कोस के छठे भाग में) सांसारिक प्रपञ्चों से (सर्वथा) विमुक्त, महान भाग्यशाली, एवं ‘सिद्धि' नामक श्रेष्ठ गति को प्राप्त हुई सिद्ध आत्माएं प्रतिष्ठित रहती हैं।
अध्ययन-३६
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