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________________ अध्ययन परिचय दो सौ अड़सठ गाथाओं वाले प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-सम्पूर्ण लोक-अलोक की समस्त वस्तु-स्थितियों का सम्यक् ज्ञान। अलोक का अर्थ है-जीव-अजीव-शून्य केवल आकाश की उपस्थिति। अलोक में लोक स्थित है और लोक में सभी जीव और अजीव। लोक मूलतः दो ही तत्वों से परिपूर्ण है-जीव और अजीव। इन दोनों के माध्यम से लोक की सांगोपांग विवेचना होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'जीवाजीव विभक्ति' रखा गया। सभी संसारी जीव, आत्मा और पुद्गलों के संयोग से अस्तित्व में हैं। सिद्धावस्था में आत्मा कर्म पुद्गलों से रहित निर्मलतम रूप में या शुद्ध स्वरूप में रहती है। आत्मा जीव है तो पुद्गल अजीव। जीव की अजीव-मुक्ति (या कर्म-पुद्गलों से मुक्ति) सिद्धावस्था है। उसे पाने के लिए जीव और अजीव का अलग होना अनिवार्य है और दोनों को अलग करने के लिए दोनों को जानना। दोनों का भेद समझना। यह ज्ञान इस अध्ययन में है। 'जीवाजीव विभक्ति' नामकरण का एक आधार यह भी है। लोक की सभी वस्तुयें जीव-अजीव के संयोग या वियोग से बनी हैं। राग-द्वेष के कारण अजीव या पुद्गल जीवात्मा की ओर आकर्षित होते हैं। उस से संबद्ध या आबद्ध या एकमेक होते हैं। परिणामतः आत्मा भांति-भांति के शरीर धारण करती है। सुख-दुःख भोगती है। राग-द्वेष कर्मों के मूल कारण हैं। सम्यक् साधना द्वारा उनका नष्ट होना संभव है। कारण की समाप्ति का अर्थ कार्य का निर्मूल होना है। राग-द्वेष समाप्त होने का अर्थ आत्मा का कर्म-पुद्गल-मुक्ति की ओर बढ़ना है। संसार-मुक्ति या परम लक्ष्य की ओर बढ़ना है। राग-द्वेष सम्यक्त्व के अभाव में निर्मूल नहीं होते। सम्यक्त्व ही आत्मा द्वारा शुद्धतम स्वरूप तक पहुंचने का रास्ता है। जीव को अजीव से भिन्न समझना और अनुभव करना सम्यक्त्व-प्राप्ति का आधार है। सम्यक्-दृष्टिसम्पन्न जीव सम्पूर्ण अजीव-समुदाय को पर-भाव मानता है। यह मान्यता आत्म-साक्षात्कार की क्षमता भी प्रदान करती है और अजीव के प्रति सम्यक व्यवहार भी निर्धारित करती है। यह सम्यक् व्यवहार ही संयम है और संयम ही मोक्ष-मार्ग। जीव अपने को अजीव से अलग तभी कर सकता है जब वह अजीव को पूर्णत: जान ले। अजीव के सभी सम्भव रूपों को समझ लें। उन रूपों के नाम, ७६० उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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