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१८. (मुनि अपनी) अर्चना (पुष्प आदि से पूजा), (अपने सम्मान में
अन्य द्वारा 'स्वस्तिक' आदि की) रचना, (नमस्कार-पूर्वक अभिनन्दनात्मक) वन्दना, (विशिष्ट वस्त्रादि के समर्पण के साथ) पूजा, ऋद्धि, सत्कार (अर्थ-दान), एवं सम्मान (अभ्युत्थान आदि)
को मन से भी न चाहे । १६. (मुनि) शुक्ल (विशुद्ध आध्यात्मिक) ध्यान में एकाग्रचित्त रहे ।
वह निदान-रहित, अकिंचन (अपरिग्रही) रहते हुए, जब तक (आयु कर्म का) काल-पर्याय है, (तब तक) शरीर-का व्युत्सर्ग करके (शारीरिक ममत्व का त्यागी होकर, अप्रतिबद्ध रूप से) विचरण करे।
२०. (वह मुनि) काल-धर्म (मृत्यु) के उपस्थित होने पर, सामर्थ्य-युक्त
हो आहार का त्याग कर, (संलेखना-पूर्वक) मनुष्य-देह को छोड़ कर, दुःखों से विमुक्त हो जाता है।
२१. ममत्व-हीन, अहंकार-रहित, वीतराग व (पूर्णतः) आसव-रहित
होता हुआ, (वह मुनि) 'केवल' ज्ञान को प्राप्त कर, शाश्वत रूप से (सदा के लिए) परिनिर्वाण को प्राप्त होता है (-सिद्ध-बुद्ध व मुक्त हो जाता है)। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-३५
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