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________________ १८. करवत आरी (के अग्रभाग), गाय की जीभ, तथा 'शाक' (वनस्पति/बिच्छू बूटी आदि) के पत्तों का जिस प्रकार का (कर्कश) स्पर्श होता है, (तीनों) अप्रशस्त लेश्याओं का उससे भी अनन्त गुना (अधिक कर्कश स्पर्श) होता है। १६. 'बूर' (नामक वनस्पति) का, तथा मक्खन का या शिरीष के फूलों का जैसा (मृदु, कोमल व प्रिय) स्पर्श होता है, तीनों प्रशस्त लेश्याओं का उससे भी अनन्तगुना (अधिक मृदु, कोमल व प्रिय स्पर्श) होता है। २०. (सभी) लेश्याओं (में प्रत्येक) के परिणाम (जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट इन तीन भेदों के कारण) तीन प्रकार के, या नौ प्रकार के, सत्ताईस, इक्यासी और दो सौ तैंतालीस (प्रकार के) होते हैं।' २१.(जो) मनुष्य (हिंसा, असत्य आदि) आस्रवों में प्रवृत्त रहने वाला, तीन गुप्तियों से (रहित होता हुआ) अगुप्त, षट्कायिक जीवों के प्रति (हिंसादि प्रवृत्तियों से) अविरत (असंयत), तीव्र आरम्भों (उग्र भावों के साथ किये जाने वाले हिंसा आदि सावद्य कार्यों) से (एकात्मता/तल्लीनता में) परिणत होने वाला, क्षुद्र (दुष्ट/अहितचिन्तक) एवं दुस्साहसी (विवेकरहित हो काम करने वाला)निःशंक/निष्ठुर/निर्दय - परिणामी, नृशंस (कूर), अजितेन्द्रिय (भोगों में स्वच्छन्द इन्द्रिय प्रवृत्ति वाला), तथा इन (हिंसादि आनवों में प्रवृत्ति वाले-मानसिक, वाचिक व कायिक) योगों (व्यापारों से युक्त (व्यक्ति है, वह) कृष्ण लेश्या में (स्वयं को) पंरिणत करता है (या स्वयं परिणत हो जाता है)। २२. १. जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार की लेश्याओं के परिणामों को पुनः जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करने पर नौ भेद हुए, उन नौ भेदों के भी जघन्य आदि तीन-तीन भेद करने पर सत्ताईस, सत्ताईस के भी जघन्य आदि तीन-तीन भेद करने पर इक्यासी भेद, और इक्यासी के भी जघन्य आदि तीन-तीन भेद करने पर दो सौ तेंतालीस भेद हो जाते हैं। अध्ययन-३४ ७३१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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