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६१. वह अज्ञानी (हित-अहित के विवेक से शून्य जीव) रुचिकर
(मनोज्ञ) 'भाव' में अत्यन्त अनुरक्त हो जाता है, और जो रुचिकर न हो उस (भाव) मे द्वेष करता है, एवं (फल-स्वरूप, दोनों ही स्थितियों में वह) दुःखों के समूह (या दुःखमयी पीड़ा) को प्राप्त करता है। (किन्तु) विरक्त मुनि उस 'भाव' (से, या उसके दुःखद परिणाम) से लिप्त नहीं होता। 'क्लिष्ट' (राग से ग्रस्त/बाधित), एवं स्वार्थ को ही महत्व देने वाला (वह) अज्ञानी (जीव,मनोज्ञ) 'भाव'-सम्बन्धी (अर्थात् मनोरथ-पूर्ति सम्बन्धी) आशा का अनुगामी होता हुआ, अनेकविध चर-अचर (त्रस-स्थावर) प्राणियों की हिंसा करता है,
और विविध प्रकारों से उन्हें परिताप देता व कष्ट पहुंचाता है। ३. (मनोज्ञ) भावों के प्रति 'अनुराग' (अर्थात् विषयों/भोग्य पदार्थों
के सेवन के सम्बन्ध में बार-बार चिन्तन, स्मरण आदि की इच्छा) के कारण, तथा परिग्रह (अर्थात् मनोज्ञ भावों के अनुकूल भोग्य पदार्थों के अधिक संग्रह करने की लालसा) के कारण, (मनोज्ञ भावों के अनुकूल पदार्थों का) उत्पादन, रक्षण व सम्यक् उपयोग/उपभोग करते हुए, तथा उनके विनाश व वियोग की स्थिति में उस (प्राणी) को सुख कहां (मिल सकता है)? (उस मनोज्ञ भावों के) उपभोग-काल में (अर्थात् विचारों की उधेड़बुन के समय, पूर्व-भुक्त पदार्थों के स्मरण करते समय) भी (उस
प्राणी को) तृप्ति नहीं मिल पाती। ६४. (मनोज्ञ) 'भावों' से अतृप्त होता हुआ (अज्ञानी प्राणी) उस (भाव
के अनुकूल पदार्थों) के परिग्रह में (क्रमशः) आसक्त व अत्यासक्त होता हुआ, कभी संतुष्टि नहीं प्राप्त कर पाता। (इस) असन्तुष्टि-दोष के कारण (वह) दुःखी एवं लोभ से व्याकुल होता हुआ, परकीय अदत्त (भावानुकूल) वस्तु को ग्रहण करने (अर्थात् चुराने) लगता है।
अध्ययन-३२
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