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८७. 'भाव' (विचार, चिन्तन, स्मरण, आदि) को मन (अनिन्द्रिय)
का 'ग्राहक'- आकर्षक (ग्राह्य विषय) कहा जाता है । (मनोज्ञ 'रूप' 'रस' आदि विषयों से सम्बन्धित होने के कारण) राग के हेतु (उत्पादक) उस (भाव) को तो 'मनोज्ञ' कहा जाता है, और (अप्रिय रूप, रस आदि विषयों से सम्बन्धित होने के कारण) द्वेष के हेतु (उत्पादक) उस (भाव) को 'अमनोज्ञ' कहा जाता है। (किन्तु) उन (मनोज्ञ व अमनोज्ञ-दोनों प्रकार के भावों) में जो समभावी रहता है, वह (ही) 'वीतराग' (कहलाता) है।
मन को 'भाव' (विचार, चिन्तन, स्मरण आदि) का 'ग्राहक' कहा जाता है, और 'भाव' (विचार, चिन्तन, स्मरण आदि) को (भी) मन का 'ग्राहक'- आकर्षक (ग्राह्य विषय) कहा जाता है। राग के हेतु (भाव) को 'मनोज्ञ' कहा जाता है, और द्वेष के हेतु ('भाव') को ‘अमनोज्ञ' कहा जाता है।
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८६. जो (मनोज्ञ 'रूप' आदि विषयों से सम्बन्धित) 'भावों' (विचारों,
स्मृतियों, संकल्प-विकल्पों आदि) में तीव्र आसक्ति रखता है, वह (रागातुर प्राणी) असमय में ही उसी तरह विनाश को प्राप्त होता है, जिस तरह, (राग-वश) हथिनी के (पीछे-पीछे उसके) मार्ग पर (चलता हुआ, शिकारियों द्वारा बलात् ) अपहृत होकर, (अथवा हथिनी के राग में अपने मार्ग से भ्रष्ट होकर) काम-भोग-आसक्त
व रागातुर हाथी (मृत्यु को प्राप्त होता है)। ६० (अमनोज्ञ-'रूप' आदि से सम्बन्धित) 'भाव' के प्रति जो तीव्र द्वेष
भी करता है, वह (प्राणी) तो उसी क्षण अपने (ही) दुर्दान्त (प्रचण्ड) द्वेष (या दोष) के कारण, दुःख (रूप परिणाम) को प्राप्त करता है। (दुःख पाने वाले) उस (प्राणी) का वह (अमनोज्ञ) भाव कुछ भी (किंचिन्मात्र भी) अपराधी नहीं होता।
अध्ययन-३२
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