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८२. स्पर्श (के उपभोग) में अतृप्त रहने वाला, तथा उसके परिग्रह
करने में तृष्णा के वशीभूत-(वह प्राणी परकीय वस्तुओं की) चोरी करता है, उसके (उक्त) लोभ-दोष के कारण, माया (कपट) व असत्य (आचरण की प्रवृत्तियों) में वृद्धि होती है। (किन्तु) तब ( झूठ व कपट आचरण के बाद) भी, उसे दुःख से मुक्ति नहीं
मिल पाती। ८३. असत्य (आचरण) के अनन्तर, उससे पूर्व, तथा उसके आचरण
के समय भी (वह अज्ञानी) दुःखी होता है, और इसका परिणाम भी दुःखद होता है। इस तरह, (रुचिकर) स्पर्श से अतृप्त रहने एवं चोरी करने वाला (वह प्राणी) दुःखी व निराश्रित/असहाय
हो जाता है। ८४. इस प्रकार, (रुचिकर) स्पर्श के प्रति अनुरक्ति रखने वाले मनुष्य
को किंचिन्मात्र भी, एवं किसी समय भी, कहां से सुख (प्राप्त) होगा? जिस (रुचिकर स्पर्श वाली वस्तु की प्राप्ति) के लिए(वह इतना) कष्ट उठाता है, उस (वस्तु के प्राप्त होने पर, उस) के
उपभोग में भी (उसे) क्लेश व दुःख (ही प्राप्त होता) है। ८५. इसी तरह, (अरुचिकर) स्पर्श के प्रति द्वेष रखने वाला (जीव
भी, उत्तरोत्तर) दुःखों के समूह की परम्परा को प्राप्त करता है। द्वेष से पूर्ण चित्त वाला वह (जीव) जिस-जिस (अशुभ) कर्म को उपार्जित करता (बांधता) है, वह (कर्म) भी अपने ‘विपाक' (फलोदय) के समय (इस जन्म में या परलोक में) पुनः दुःखरूप
(व दुःख का कारण) बन जाता है। ८६. (रुचिकर व अरुचिकर) स्पर्श के प्रति विरक्त (व द्वेष-रहित)
मनुष्य शोक-रहित होता हुआ, संसार के मध्य रहते हुए भी, इस दुःख-समूह की (उत्तरोत्तर) परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं हुआ करता, जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल (में रहता हुआ भी, जल) से लिप्त नहीं होता।
अध्ययन-३२
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