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________________ TorT...] तीसवां अध्ययन : तपोमार्ग - गति १. राग-द्वेष द्वारा उपार्जित पाप-कर्म को भिक्षु 'तप' के द्वारा, जिस रीति से क्षीण करता है, उस (तप एवं कर्म-क्षय- -पद्धति) के विषय में एकाग्रचित्त होकर सुनो। २. प्राण-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य), अदत्त (आदान, चौर्य), मैथुन (अब्रह्मचर्य), परिग्रह (ममत्व, आसक्ति) तथा रात्रि-भोजन (-इन छः सावद्य कार्यों) से विरत होने वाला जीव अनाश्रव (कर्मों के आस्रव से रहित अर्थात् नवीन कर्म-प्रवाह की धारा से अस्पृष्ट) होता है । ३. पांच (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, परिष्ठापना) समितियों व तीन (मन-वचन-काय से सम्बन्धित) गुप्तियों से युक्त, (क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार) कषायों से रहित, (ऋद्धि, साता, रस- इन तीन) शल्यों से मुक्त हुआ (जीव कर्मों के) आस्रव से रहित होता है । ४. इन (आस्रव-हीनता के साधक गुणों) की विपरीतता में राग-द्वेष के द्वारा (जो कर्म) उपार्जित (होता है, उस) कर्म को भिक्षु (तपश्चर्या की) जिस रीति से क्षीण-विनष्ट करता है, उसके विषय में मुझ से एकाग्रचित्त होकर सुनो। अध्ययन- ३० ५. जैसे (किसी) बड़े तालाब में उस) के जल-प्रवाह का मार्ग रोक देने पर और (पूर्व-विद्यमान जल को तालाब के बाहर) उलीच (कर फैंक) देने या (सूर्य आदि) के ताप द्वारा क्रमशः (धीरे-धीरे, उस तालाब के जल को) सुखा दिया जाता है । ६१५ artis 5 XXXX
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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