________________
है। तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करने वाला (जीव) महानिर्जरा (समस्त कर्म-क्षय) व महापर्यवसान (संसार-विनाश अर्थात्
'मुक्ति' प्राप्त करने) वाला हो जाता है। (सू.२१) (प्रश्न-) भंते! 'प्रतिपृच्छना' (पूर्व-पठित शास्त्र आदि में
किसी प्रकार के सन्देह के उत्पन्न होने पर, गुरु आदि से विनय-पूर्वक शंका-समाधान करने) से जीव क्या (गुण या
विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'प्रतिपृच्छना' से (जीव) सूत्र, अर्थ तथा दोनों (अर्थात् सूत्रार्थ
से सम्बन्धित सन्देह के दूर हो जाने से उन) सन्देहों को विशुद्ध करता है, तथा कांक्षा-मोहनीय (संशयोत्पादक ८
मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म-विशेष) कर्म का उच्छेद करता है। (सू.२२) (प्रश्न-) भन्ते! ‘परावर्तना' (पठित पाठ/शास्त्र की पुनरावृत्ति
या पुनःपुनः स्मरण से) जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल)
उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'परावर्तना' से (जीव) व्यंजनों (पठित पाठ से सम्बन्धित अक्षरों
को स्मृति पट पर यथावत् पुनः) उत्पन्न करता है, और (ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के प्रभाव से) 'व्यंजन-लब्धि' (अक्षर-लब्धि : एक अक्षर के स्मरणमात्र से शेष सैकड़ों अक्षरों की स्मृति हो जाने की शक्ति) का (तथा ‘पदानुसारिता': एक पद से अन्य पदों का स्मरण आदि 'पद-लब्धि' का भी) उपार्जन
करता है। (सू.२३) (प्रश्न-) भन्ते! 'अनुप्रेक्षा' (सूत्र व सूत्रार्थ का तात्विक
चिन्तन-मनन) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध
करता है? (उत्तर-) 'अनुप्रेक्षा' (अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षाओं तथा धर्मध्यान
व शुक्लध्यान से सम्बन्धित चार-चार अनुप्रेक्षाओं) से (जीव) प्रगाढ़ बन्धन में बंधी हुई तथा आयु कर्म को छोड़ कर (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र
व अन्तराय - इन) सात कर्म प्रकृतियों के बन्धन को शिथिल अध्ययन-२६
५७१