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________________ उन्तीसवां अध्ययन : सम्यक्त्व पराक्रम Tor-THAA हे आयुष्मन्! मैंने सुना है उन (श्रमण) भगवान् (महावीर) ने ऐसा कहा है (सूत्र- १) इस (जिन प्रवचन रूप 'उत्तराध्ययन' सूत्र) में 'सम्यक्त्व पराक्रम' नामक अध्ययन की काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने प्ररूपणा की है, जिस पर सम्यक् श्रद्धान् कर, प्रतीति करके, रुचि करके (मन, वचन व काया से जिसके हार्द को) स्पर्श करके पालन (अतिचार - रहित क्रियान्वित) करके, (अध्ययनादि द्वारा आदि से अन्त तक या जीवन के अन्तिम क्षण तक हृदयंगम करते हुए) पार करके (गुरु आदि के समक्ष) कथन (या गुणानुवाद-कीर्तन व स्वाध्याय) कर (गुरु-निर्देशन में) शुद्ध उच्चारण के साथ, अशुद्धि रहित बनाते हुए या गुणस्थान क्रम से उत्तरोत्तर विशुद्धि प्राप्त करते हुए विशुद्ध करके, आराधना करके तथा (गुरु व जिनेन्द्र की) आज्ञा के अनुरूप विधिपूर्वक पालन करके बहुत से प्राणी सिद्ध, बुद्ध व मुक्त होते हैं । परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं, और समस्त दुःखों का अन्त कर लेते हैं । - उस (जिनेन्द्र-प्ररूपणा) का अर्थ (प्रतिपाद्य विषय-अनुक्रम) यह, इस प्रकार (तिहत्तर बोलों में) बताया जाता है१. संवेग २. निर्वेद ३. धर्मश्रद्धा ४. गुरु व साधर्मिकों की सेवा-शुश्रूषा ६. निन्दा ८. सामायिक ५. आलोचना ७. ग ६. चतुर्विंशति स्तव ११. प्रतिक्रमण अध्ययन २६ १०. वन्दना १२. कायोत्सर्ग ५५३ BALICIANS
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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