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३२. (दिन की) तीसरी पौरुषी (प्रहर-वेला) में (निम्नलिखित) छ:
कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर (मुनि) भक्त-पान (आहार) की गवेषणा करे।
३३. (वे छ: कारण हैं-) १. वेदना (क्षुधा की शान्ति) के लिए, २.
वैयावृत्य के लिए, ३. ईर्या समिति के पालन के लिए, ४. संयम के निर्वाह हेतु, ५. प्राणों को बचाये रखने के लिए तथा छठा कारण है- धर्म-चिन्तन (अप्रशस्त दुर्ध्यान न हों- इस) के लिए।
३४. धृति-सम्पन्न साधु व साध्वी (निम्नलिखित) छ: कारणों से
(भक्तपान आहार की गवेषणा) न करे, जिससे उनके संयम का अतिक्रमण (उल्लंघन) न हो।
३५. १. रोग होने पर, २. उपसर्ग होने पर, ३. ब्रह्मचर्य सम्बन्धी
गुप्ति की सुरक्षा हेतु ४. प्राणि दया हेतु, ५. तप के लिए तथा ६. शरीर-विच्छेद (अन्तिम समय, संलेखना) के लिए (अर्थात् इन परिस्थितियों/उद्देश्य के निमित्त आहार-पानी का त्याग-शास्त्र
समर्थित है)। ३६. (भिक्षा - चर्या से पूर्व) समस्त भाण्ड-उपकरणों (वस्त्र व पात्र
आदि) को लेकर, आंखों से उनकी प्रतिलेखना करे (उन्हें लेकर) मुनि (अपने निवास-स्थान से या भिक्षा-स्थान से अधिक से
अधिक) आधे योजन की दूरी तक (ही) विहार करे । ३७. चतुर्थ पौरुषी (प्रहर) में भाजनों (उपकरणों) को (प्रतिलेखनापूर्वक)
सुस्थापित करके, समस्त पदार्थों के प्रकाशक 'स्वाध्याय' (तप का अनुष्ठान) करे ।
अध्ययन-२६
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