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________________ TITL १२. प्रमाण- प्रमाद (प्रमाद के कारण, निर्दिष्ट प्रमाण-नौ बार से अधिक या कम प्रस्फोटन व प्रमार्जन करना) तथा १३. शंकित - गणना (निर्दिष्ट प्रमाण में शंका होने पर, हाथ की अंगुलियों की पर्व- रेखाओं से गिनती) की जाए। २८. (प्रस्फोटन व प्रमार्जन के निर्दिष्ट) प्रमाण से न कम, न ज्यशदा, तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही कर्तव्य होती है । उक्त तीन विकल्पों के आधार पर बने आठ विकल्पों में प्रथम विकल्प' ही प्रशस्त है, शेष तो (सात विकल्प) अप्रशस्त होते हैं । २६. (यदि) प्रतिलेखना करते समय (मुनि) परस्पर-कथा (संभाषण आदि) या फिर जनपद (देश व स्त्री आदि) से सम्बन्धित कथा करता है, अथवा (बीच-बीच में किसी को) प्रत्याख्यान (त्याग-नियम भी) दिलाता रहता है, अथवा वाचना दिलाता है, या स्वयं वाचना ग्रहण करता है, (तो ऐसी स्थिति में वह 'प्रमादी' है और फल-स्वरूप) ३०. प्रतिलेखना में प्रमाद करने वाला (वह) साधक पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रस- इन छहों (जीवों) का विराधक (हिंसक) होता है । ३१. (किन्तु) प्रतिलेखना में उपयोग युक्त (साधक) पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रस- इन छहों (जीवों) का संरक्षक होता है । प्रशस्त विकल्प है- अन्यून (कम नहीं), अनतिरिक्त (अधिक भी नहीं) तथा अविपरीत (मर्यादित विधि के प्रतिकूल भी नहीं)। सात अप्रशस्त विकल्प इस प्रकार हैं- १. अन्यून, अनतिरिक्त, किन्तु विपरीत, २. अविपरीत होते हुए भी न्यून व अतिरिक्त, ३. अनतिरिक्त व अविपरीत होते हुए भी न्यून, ४. अन्यून होते हुए भी अतिरिक्त और विपरीत भी ५. अनतिरिक्त होते हुए भी न्यून और विपरीत भी ६. अन्यून व अविपरीत होते हुए भी अतिरिक्त, ७. न्यून भी, अतिरिक्त भी, विपरीत भी । अध्ययन- २६ 9. ५०६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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