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२५. (प्रतिलखेना में वस्त्र या शरीर को) न नचाते हुए, न मोड़ते हुए,
दृष्टि से न दिखाई पड़े- इस प्रकार वस्त्र का विभाग न करते हुए (या वस्त्र को जोर से न झटकते हुए) वस्त्र को दीवार आदि से स्पृष्ट न कराते हुए, वस्त्र के छः ‘पूर्व' (दोनों हिस्सों को तीन-तीन बार खंखेरना) व 'खेटक' (वस्त्र का अपने सामने जो भाग है, उसके तीन-तीन भागों की कल्पना कर, प्रत्येक भाग को तीन-तीन बार शोधन) करते हुए, हाथ में आए प्राणी की
प्रमार्जना करे। २६. (प्रतिलेखना में) इन (तेरह दोषों/प्रमादों से पूर्ण प्रतिलेखनाओं)
का त्याग करे- १. आरभटा (निर्दिष्ट विधि को छोड़ कर या जल्दी जल्दी एक वस्त्र की पूरी तरह प्रतिलेखना किए बिना दूसरे को प्रतिलेखना करने लगना), २. संमर्दा (जिस वस्त्र की प्रतिलेखना करनी है, उसके कोने मुड़े ही रहें, सलवट भी निकाली न गई हो, या उस वस्त्र पर ही बैठ कर प्रतिलेखना करना), ३. मौसली (प्रतिलेखन-योग्य वस्त्र आदि को ऊपर नीचे, इधर-उधर दीवार से या अन्य पदार्थ से स्पृष्ट करना), ४. प्रस्फोटना (धूलिधूसरित वस्त्र की तरह जोर से झटकना), ५. विक्षिप्ता (प्रतिलेखना किए गए वस्त्र आदि को प्रतिलेखना रहित वस्त्र आदि में मिला देना या प्रतिलेखित वस्त्रों को इधर-उधर फेंक देना या इतना अधिक ऊँचा उठा लेना कि ठीक से प्रतिलेखना न हो सके), ६. वेदिका (प्रतिलेखना के समय, घुटनों के ऊपर-नीचे या मध्य में या बगल में हाथ रख लेना, या घुटनों
को भुजाओं के बीच में रखना)। २७. (इसी तरह ये सात निषिद्ध विधियां भी वर्जनीय हैं-)
७. प्रशिथिल (वस्त्र को ढीला पकड़ना), ८. प्रलम्ब (वस्त्र के कोनों को भूमि तक लटका देना), ६. लोल (वस्त्र को भूमि से या हाथ से रगड़ना), १०. एकामर्शा (एक ही दृष्टि में सम्पूर्ण वस्त्र को देख जाना), ११. अनेक रूप-धुनना (अनेक वस्त्रों को एक साथ, एक बार में ही, या एक वस्त्र को तीन बार से अधिक झटकना),
अध्ययन-२६
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