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________________ अध्ययन-सार: ब्राह्मण-कुलोत्पन्न महायशस्वी जयघोष यज्ञ-अनुराग छोड़ संयमी मुनि हुए। विचरते हुए वाराणसी पहुँचे। मासखमण तप के पारणे हेतु विजयघोष द्वारा आयोजित यज्ञ में उपस्थित हुए। विजयघोष ने भिक्षा देने से मना करते हुए कहा कि यह अन्न निज-पर-उद्धार में समर्थ ब्राह्मणों के लिये ही है। यह सुन जयघोष मुनि ने विजयघोष को अज्ञान-अंधकार- ग्रस्त जान करुणार्द्र हो ज्ञान दिया। बतलाया कि वेदों का मुख अग्निहोत्र है और यज्ञों का मुख यज्ञार्थी। नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्म के मुख हैं-भगवान् ऋषभदेव। वस्तुतः ब्राह्मण वही है जो राग-द्वेष रहित, भयातीत, सुव्रती, अहिंसक, सत्यवादी, अस्तेय-सम्पन्न, ब्रह्मचारी, रस-परित्यागी और अनासक्त हो। यज्ञ पाप-कर्म-पूर्ण होने के कारण त्राण नहीं कर सकते। व्यक्ति समभाव से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है। कर्म से ही वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। कर्मों से मुक्त तथा गुणों से सम्पन्न ब्राह्मण ही स्व-पर-उद्धार में समर्थ है। यह जानकर विजयघोष के संशय निर्मूल हुए। उन्होंने जयघोष मुनि की स्तुति करते हुए आभार व्यक्त किया। भिक्षा लेने की प्रार्थना की। जयघोष मुनि ने कहा कि भिक्षा से नहीं, तुम्हारे अभिनिष्क्रमण व उद्धार से प्रयोजन है। भोगी गीली मिट्टी के गोले की तरह संसार-रूपी दीवार से चिपक जाता है जबकि ज्ञानी सूखी मिट्टी के गोले की तरह संसार-रूपी दीवार से नहीं चिपकता। विरक्त साधक संसार त्याग कर निज-पर-उद्धार का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। यह सुन विरक्त हो विजयघोष ने अनुत्तर श्रमण-धर्म अंगीकार किया। दीक्षा ली। जयघोष-विजयघोष, दोनों मुनियों ने तप-संयम द्वारा सिद्धि पाई। 00 ४६२ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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