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अध्ययन-सार :
विनय के आचरण से 'शील' की प्राप्ति होती है। इस 'शील' के अभाव में, दुःशील व्यक्ति की विष्ठाभोजी सूअर की तरह अशोभनीय स्थिति होती है,
और वह सड़े कान की कुतिया की तरह सभी स्थानों से दुत्कारा जाता है। कुशील शिष्य मृदु स्वभाव के गुरु को भी क्रोधित कर देता है, जब कि सुशील व विनीत शिष्य उग्रस्वभावी गुरु को भी प्रसन्न/अनुकूल कर लेता है। इसलिए आत्म-हितेच्छु साधक को चाहिए कि वह स्वयं को विनय-धर्म में स्थापित करे।
विनीत शिष्य चाबुक को देखते ही उन्मार्ग छोड़ देने वाले उत्तम जाति के घोड़े की तरह होता है जो गुरु के इंगितादि को देखकर ही उन्मार्ग को छोड़ने की प्रेरणा ले लेता है, और जिसे अनुशासित करते हुए गुरु को भी खिन्नता नहीं होती, अपितु प्रसन्नता ही होती है। शिष्य के विनयाचरण से प्रसन्न होकर पूज्य गुरु-जन मोक्षोपयोगी श्रुत-ज्ञान का लाभ शिष्य को करवा देते हैं। फलस्वरूप, वह गुरुजनों का प्रिय पात्र, पूज्य-शास्त्र-सम्पन्न, संशय-हीन, धर्म-सम्पदायुक्त, तप-समाचारी व समाधि से सम्पन्न, पंच महाव्रतादि के पालन से महान् तेजस्वी हो जाता है। देवों, गन्धर्वो और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य देह-त्याग के बाद मुक्त या अल्पकर्मा देव होता है। लोक में विनयी की कीर्ति होती है, वह सत्कार्यों एवं सत्कर्मियों के लिए शरण (आधार) हो जाता है।
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उत्तराध्ययन सूत्र