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________________ ३७. केशीकुमार श्रमण ने गौतमस्वामी से कहा है- “हे गौतम! (आपने अभी) किन शत्रुओं का वर्णन किया है?" (इस प्रकार) कह रहे केशीकुमार को, तब गौतम स्वामी ने यह कहा ३८. “अविजित आत्मा (वशीभूत नहीं किया हुआ मन) 'एक' शत्रु है, (चार) कषाय व (पांच) इन्द्रियां (नौ शत्रु) हैं। उन (मन, चार कषाय, पांच इन्द्रियां- इन दस शत्रुओं) को जीतकर, मैं न्याय-संगत (शास्त्र-मर्यादानुरूप) रीति से विहार करता हूँ ।” ३६. (महामुनि केशीकुमार ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ट है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया। (किन्तु एक) अन्य संशय भी मुझे है, हे गौतम! उसके विषय में (भी) मुझे आप बताएं।" ४०. “हे मुने! (इस) संसार में बहुत-से शरीरधारी (प्राणी) पाश में बंधे दिखाई देते हैं। (आप) पाश-मुक्त व लघुभूत (वायु-जैसे हलके/पाप-भार से मुक्त) होकर कैसे विचरण करते हैं?" ४१. (गौतमस्वामी बोले-) “हे मुने ! उन पाशों (बन्धनों) का सभी तरह से छेदन (काट) कर तथा (उन्हें) उपाय-पूर्वक विनष्ट कर, मैं पाश-मुक्त व लघुभूत वायु की तरह हलका-भारमुक्त होकर विचरण करता हूं।" ४२. केशीकुमार श्रमण ने गौतमस्वामी को कहा- “(आपने) किन पाशों के बारे में कहा है? ऐसा कहने पर केशीकुमार को गौतम स्वामी ने यह कहा ४३.“हे मुने! तीव्र राग द्वेष आदि व स्नेह (आसक्ति, ममत्व भाव ही) भयंकर 'पाश' (बन्धन) हैं। उन्हें न्याय-संगत रीति से छेदन (जीत) कर, क्रमानुरूप ज्ञान-क्रिया (परम्परा) के अनुरूप में विहार करता हूँ ।” अध्ययन-२३ ४४१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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