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________________ ७३. “में नरकों में (उक्त) तीव्र, प्रचण्ड, प्रगाढ़, घोर, अतिदुःसह, महाभयप्रद व भीषण वेदनाओं का अनुभव कर चुका हूं।" ७४. “हे पिता! मनुष्य-लोक में जिस प्रकार की (शीत व उष्ण आदि) वेदनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, नरकों में इनसे भी अनन्त गुनी (अधिक) दुःखपूर्ण वेदनाएं होती हैं।" ७५. “मुझे इन सभी जन्मों में 'असाता' (दुःखरूप) वेदना का अनुभव हुआ है, क्योंकि वहां पलक झपकने के समय मात्र के लिए भी 'साता' (सुखमयी) वेदना नहीं होती।" ७६. (तब) माता पिता ने उस (मृगापुत्र) को कहा- “हे पुत्र! इच्छानुसार तुम प्रव्रजित हो जाओ। किन्तु (यह जान लो कि दीक्षा लेने के बाद) श्रमण-जीवन में प्रतिकर्म (रोगादि होने पर चिकित्सा आदि) नहीं कराना (कितना) दुःखरूप है।" ७७. उस (मृगापुत्र) ने कहा-“हे माता-पिता! जैसा यह (आपने कहा) है, स्पष्ट रूप से (सामान्यतः तो) वैसा ही है। (किन्तु यह तो सोचिए) जंगल में (रहने वाले) मृगों व पक्षियों का प्रतिकर्म (चिकित्सा आदि) कौन करता है?" ७८. “जिस प्रकार वन में मृग अकेला ही (अप्रतिबद्ध) विचरता है, उसी प्रकार में संयम व तप के साथ (एकाकी भाव-निष्ठ होकर मुनि) धर्म का आचरण करूंगा।" ७६. “जब महावन में (रहने वाले) मृग के शरीर में आतंक (रोग आदि) पैदा हो जाता है, तब (किसी) पेड़ के नीचे बैठे हुए उस (मृग) की कौन चिकित्सा करता है?" अध्ययन-१६ ३५७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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