________________
२६. “संसार में शत्रु व मित्र (दोनों) के प्रति और (सामान्यतः) सभी
प्राणियों के प्रति समता-भाव रखना, और जीवन-पर्यन्त प्राणातिपात (जीव-वध) से विरति रखना (अत्यन्त) दुष्कर (कार्य)
२७. “सदा प्रमाद-रहित रहते हुए, 'मृषावाद' (असत्य-भाषण) का
त्याग करना तथा नित्य सावधान रहते हुए हितकारी सत्य का भाषण करना दुष्कर (कार्य) है।"
२८. “(यहां तक कि) दन्त-शोधन (दतौन/तृणादि वस्तु) को (भी)
बिना दिए न लेना (और प्रदत्त वस्तुओं में भी) निर्दोष व एषणीय (विधि-सम्मत) का (ही) ग्रहण करना- (यह) दुष्कर (कार्य) है । "
२६. “काम-भोगों के रस (स्वाद) के ज्ञाता (परिचित व्यक्ति) के लिए
अब्रह्मचर्य (मैथुन आदि) से विरत होना, तथा (यावज्जीवन) उग्र ब्रह्मचर्य-व्रत का धारण करना (यह भी) अतिदुष्कर (कार्य) है ।"
३०. “धन-धान्य तथा दास-दासी वर्ग के संग्रह (परिग्रह) का त्याग
करना, तथा सभी आरम्भों (सावध व्यापारों) का परित्याग करना, एवं ममत्व-रहित हो जाना (यह सब भी) अतिदुष्कर (कार्य) है।"
३१. “(अशन, पान, खाद्य-स्वाद्य) चतुर्विध आहार के रात्रि में सेवन
का परित्याग करना, तथा 'सन्निधि (घृत, गुड़ आदि को काल-मर्यादा से ज्यादा रखना) और 'संचय' (संग्रह) का परित्याग
करना अति दुष्कर (कार्य) है।” ३२. “भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस-मच्छरों के (निमित्त से होने वाले)
कष्टों को, तथा आक्रोशपूर्ण वचन, दुःखशय्या (कष्टकारी निवास-स्थान), तृण-स्पर्श व (शारीरिक) मैल (आदि परीषहों को सहन करना दुष्कर कार्य है।)"
अध्ययन-१६
३४३