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________________ अध्ययन-सार : 'पाप-श्रमण' की दृष्टि में मुनि-जीवन अंगीकार करने का उद्देश्य मात्र पर्याप्त आहार-पानी, वस्त्र, आवास आदि की सुविधा एवं पूजा-सत्कार को प्राप्त करना होता है। आत्म-गुणों के पोषण में ध्यान न देकर वह मात्र शरीर-पोषण में ही दत्तचित्त रहता है। सुबह से लेकर शाम तक बार-बार आहार, खा-पीकर सुख से सो जाना उसे प्रिय होता है। तपस्या व शास्त्राध्ययन आदि श्रमणोचित क्रियाओं में उसकी कोई रुचि नहीं रहती। वह अपने ज्ञानदाता आचार्य आदि की सेवा-विनय-भक्ति आदि करना भी छोड़ कर उनकी अविनय, निन्दा या तिरस्कार करने से भी नहीं चूकता। मुनिवेश को छोड़ कर उसके आचार-विचार में कोई भी श्रमणोचित सद्गुण प्रकट नहीं होते। वह विवेकभ्रष्ट होकर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्राणियों को उत्पीड़ित करता रहता है और किसी प्रकार की यतना नहीं करता। अपने उपकरणों व शैया-आसन आदि की ठीक से प्रमार्जना-प्रतिलेखना या तो करता नहीं, या असावधानीपूर्वक करता है। वह शारीरिक चंचलता व विकृत चेष्टाएं करता रहता है। वह मायावी, वाचाल तथा कुशील साधुओं की तरह आचरण करने वाला, शुभाशुभ निमित्त बता कर जीविका चलाने वाला, जन-सामान्य से भिक्षा न लेकर पूर्व-परिचित स्वजनों से ही भिक्षा लेने वाला, प्राप्त आहार का संविभाग नहीं करने वाला, गृहस्थी के धन्धों में व्यापार-रत, तथा इन्द्रियों व मन पर नियन्त्रण न रखने वाला होता है। शान्त विवाद को पुनः भड़काने में और कलह, विग्रह व अधर्माचरण में 'पाप-श्रमण' की रुचि या प्रवृत्ति रहा करती है। बिना किसी शास्त्र-सम्मत कारण के वह अपने आचार्य, गुरु या संघ/गण छोड़कर अन्य आचार्य, गुरु या संघ/गण व परम्परा को स्वीकार करता रहता है। उक्त निन्दित आचार-विचारों वाला वह पाप-श्रमण न यह लोक सुधार सकता है और न परलोक। उसे विषतुल्य समझ कर, उसके संसर्ग से बचना चाहिए। इसके विपरीत, पाप-श्रमणोचित दोषों से सर्वथा दूर रहने वाले जो सुव्रती व सद्भिक्षु हैं, वे अपने दोनों लोक सुधारते हैं और 'अमृत' के समान सदा सेवनीय व उपासनीय होते हैं। ३०६ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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