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अध्ययन-सार :
मिथिला के राजा 'नमि' पूर्वजन्म की स्मृति होने से स्वयं सम्बुद्ध हो गये। उन्होंने अपने पुत्र को राज्याभिषिक्त कर, प्रव्रज्या हेतु निष्क्रमण किया। नमि राजर्षि के समक्ष देवेन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण कर उपस्थित हुए और उन्होंने कुछ प्रश्न पूछे। नमि राजर्षि ने समीचीन युक्तियों से उनका समाधान किया। राजर्षि ने कहा, "मुझ पर आश्रित परिवार व राज्याश्रित प्रजा मोह व राग-वश शोक कर रही है। यह शोक उपेक्षा के योग्य है। प्रव्रज्या धारण कर मैं मोह व राग के बन्धन तोड़ने की दिशा में स्व-पर-हित-साधन की दृष्टि से बढ़ रहा हूं। महल व अंतः पुर के जलने से मेरा कुछ नहीं जलता। मैं अकिंचन हूं। बाह्य सुरक्षा से आत्मिक सुरक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। कर्म-शत्रुओं से आत्मिक सुरक्षा हेतु मैंने श्रद्धा-रूपी नगरी के प्रथम आदि द्वारों पर तप व संवर की अर्गला लगा दी है। क्षमा का दृढ़ कोटा बना दिया है। तीनों गुप्तियों (की खाइयों) से इसे सुरक्षित व अपराजेय बना दिया है। मेरे आत्म-पराक्रम के धनुष की प्रत्यंचा ईर्या समिति है। इस पर तप रूपी बाणों के संधान से कर्म-शत्रुओं के कवच भेदने मैं निकला हूं। यह संसार तो रास्ता है और रास्ते में घर बनाना मूर्खता है। मुक्ति-धाम में पहुंच कर मैं शाश्वत घर बनाऊंगा। स्वच्छन्द इन्द्रियां व मन ही वास्तविक चोर डाक लटेरे हैं। इन्हीं का दमन सच्ची सुरक्षा है। आंतरिक शत्रु ही वास्तविक शत्रु हैं। इन्द्रियों व कषायों पर विजय ही सच्ची विजय है। यज्ञ-दान आदि से संयम-पालन श्रेयस्कर है। मासखमण करते हुए पारणे में कुश-नोक पर आने जितना आहार लेने वाले गृहस्थ का व्रत सम्यक् चारित्र रूपी धर्म की सोलहवीं कला की समता भी नहीं कर सकता। वास्तविक तृप्ति धन-धान्य से नहीं अपितु निराकांक्षता से ही सम्भव है। तप व संयम से निराकांक्षता का उदय होता है। समस्त काम-भोग विष व आशीविष के तुल्य हैं। दुर्गति-कारक हैं। त्याज्य हैं। अत: मेरा प्रव्रज्या ग्रहण करना सर्वथा उचित है।" वास्तविक रूप में आ कर देवेन्द्र ने राजर्षि नमि की प्रव्रज्या व उनके गुणों की स्तुति करते हुए वन्दना की और आकाश-मार्ग से स्वस्थान की ओर चला गया। प्रबुद्ध साधक राजर्षि नमि के समान श्रामण्य-भाव में स्थिर व आत्म-साधना में लीन होते हैं।
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उत्तराध्ययन सूत्र