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५५. देवेन्द्र (तब) ब्राह्मण-रूप को त्याग कर, एवं विकुर्वणा-शक्ति से
इन्द्र-रूप को प्रकट कर, इन मधुर वचनों से ('नमि' राजर्षि की) स्तुति करते हुए वन्दना करने लगा
५६. “अहो! (राजर्षि! आप धन्य हैं जो) आपने क्रोध को जीत लिया,
अहो! आपने मान को भी पराजित कर दिया! अहो! आपने माया का (भी) निराकरण कर दिया है। अहो! आपने लोभ को (भी) वशीभूत कर रखा है।
५७. अहो! आपकी सरलता उत्तम है ! अहो! आपकी मृदुता (भी)
उत्तम है ! अहो! आपकी क्षमा (भी) उत्तम है! अहो! आपकी निर्लोभता (भी) उत्तम है।
५८. भन्ते (भगवन्!) आप इस (लोक) में भी श्रेष्ठ हैं, परलोक में
भी श्रेष्ठ (ही) रहेंगे। आप (कर्म) रज से रहित होकर, लोक में उत्तमोत्तम स्थान-"मुक्ति' को प्राप्त करेंगे।"
५६. इस प्रकार, उत्तम श्रद्धा के साथ राजर्षि की स्तुति करते हुए
(तथा उनकी) प्रदक्षिणा करते हुए, देवेन्द्र ने बार-बार वन्दना की।
६०. इसके पश्चात्, मुनिवर (नमि राजर्षि) के चक्र व अंकुश के चिन्ह
वाले चरणों में वन्दना करने के बाद, ललित व चपल कुण्डल व मुकुट धारण करने वाला (देवेन्द्र) आकाश (मार्ग) से उड़ कर चला गया।
अध्ययन-६
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