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२३. जैसे कुश के अग्रभाग (नोंक) पर स्थित जल (बिन्दु) की
तुलना समुद्र के साथ करें (तो जल बिन्दु अतिक्षुद्र ठहरेगा),, उसी प्रकार देव-भोग्य काम भोगों के सामने मनुष्य-सम्बन्धी
काम-भोग (अतिक्षुद्र) हें। २४. (मनुष्य-भव की) अतिसंक्षिप्त आयु में ये (मानवीय) कोम-भोग (भी)
कुश की नोंक (पर स्थित जल-बिन्दु) जितने (क्षुद्र) हैं, (तथापि) किस निमित्त को सामने रख कर योगक्षेम (अप्राप्त लाभ की प्राप्ति, तथा प्राप्त 'मूल' के संरक्षण की बात) को नहीं समझता?
२५. इस (मनुष्य-भव) में काम-भोगों से विरत न होने वाले का
आत्म-प्रयोजन (स्वर्गादिप्राप्ति) विराधित/दूषित अर्थात् नष्ट हो जाता है, क्योंकि (वह) न्यायसंगत (या दुःखक्षय व संसार-सागर को पार कराने वाले) मार्ग को सुन कर भी बार-बार भ्रष्ट हो
जाता है। २६. (किन्तु) काम-भोगों से विरत होने वाले का आत्म-प्रयोजन
विराधित/दृषित अर्थात् नष्ट नहीं होता, और वह पूतिदेह (मलिन औदारिक शरीर) का निरोध (त्याग) करने के साथ (ही) 'देव' हो जाता है-ऐसा मेंने सुना है।
२७. (वहां से च्युत होकर) वह पुनः उन मनुष्यों में उत्पन्न होता है,
जहां श्रेष्ठ-ऋद्धि (स्वर्णादि की प्रचुरता), द्युति (शरीर-कान्ति), यश (पराक्रमादि की कीर्ति), वर्ण (उत्तम वर्ण या प्रशंसा), (दीर्घ) आयु तथा सुख (विषय-सुख से जन्य आह्लाद) मिलता है।
२८. अज्ञानी (जीव) की अज्ञानता को (तो) देखो ! वह (विषय-निवृत्ति
रूप) धर्म को छोड़, अधर्म (विषय प्रवृत्ति रूप) को अंगीकार कर, अधर्मरत (होता हुआ) नरक में उत्पन्न होता है।
अध्ययन-७
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