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अध्ययन परिचय
प्रस्तुत अध्ययन अट्ठारह गाथाओं से निर्मित है। इस अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-कर्म-ग्रंथि से मुक्त होने वाले या होने के इच्छुक निर्ग्रन्थ (साधु) के क्षुल्लक (सामान्य व बाह्य) आचार का प्रतिपादन। इसमें क्षुल्लक (संयम की प्राथमिक भूमिका में स्थित व अपरिपक्व) निर्ग्रन्थ के लिए अपेक्षित संयम-आचार सम्बन्धी शिक्षाओं का निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम 'क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय' रखा गया।
निर्ग्रन्थ वह होता है, जो ग्रन्थ से मुक्त हो। 'ग्रन्थ' शब्द से ही 'ग्रन्थि' व 'गांठ' जैसे शब्द बने हैं। इनका अभिप्राय है-बन्धन। बन्धन केवल बाह्य नहीं होते। वे केवल शरीर को नहीं बांधते। वे आन्तरिक भी होते हैं। आत्मा, बुद्धि व मन को भी बांधते हैं। बाह्य बन्धन वास्तव में आन्तरिक बन्धनों के ही प्रकट रूप होते हैं। अन्तर्जगत् ही व्यक्ति के बाह्य व्यवहार के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। त्याग या भोग पहले भीतर घटित होते हैं। फिर वे आचरण के रूप में उजागर होते हैं। बाह्य व आन्तरिक, दोनों बन्धनों या ग्रंथियों से मक्त साधक ही निग्रन्थ कहलाता है।
निर्ग्रन्थ के लिए दुःखमूल अविद्या का त्याग तथा 'विद्या' (ज्ञान) का प्रकाश तो जरूरी है ही, उस ज्ञान को अपने आचरण में उतारना भी आवश्यक है। बाह्य (स्थावर या जंगम, सभी) पदार्थ विनश्वर हैं, अत: असार (सारहीन) हैं, सद्ज्ञान व धर्माचरण के सिवा कोई अन्य वस्तु दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकती-इत्यादि ध्रुव सत्य की अनुभूति (सत्यान्वेषण) के साथ-साथ अहिंसादि धर्मानुष्ठान के रूप में तन-मन-वचन से प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना, मोक्ष रूप उच्च लक्ष्य की प्राप्ति में दत्तचित्त होकर कर्मक्षय के उद्देश्य से संयम धारण करना, आसक्ति व परिग्रह से सर्वथा दूर रहना, निर्दोष आहार आदि ग्रहण करना आदि क्रियाएं भी विद्यावान् निर्ग्रन्थ के लिए आवश्यक होती हैं।
भगवान महावीर निर्ग्रन्थ थे। अनेक जैन व बौद्ध ग्रंथों में उन्हें 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' कहा गया है। उनके अनुयायी सन्त भी निर्ग्रन्थ कहलाये। आरम्भ में जैन धर्म का नाम 'निर्ग्रन्थ धर्म' प्रचलित था। इस से जैन धर्म में 'निर्ग्रन्थ' शब्द के महत्त्व का अनुमान सहजता से किया जा सकता है। प्रस्तुत अध्ययन में इसका सांगोपांग अर्थ उद्घाटित किया गया है।
निर्ग्रन्थ होना वस्तुतः परम स्वतन्त्रता या मुक्ति की ओर तीव्र गति
उत्तराध्ययन सूत्र