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.से प्रारम्भ होती है। जैन परम्परा में स्वाध्याय को एक महान् तप
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अध्ययन-अनुसन्धान की उदार जैन दृष्टिः 卐
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. माना गया है - ( न वि अत्थि न विअ होही सज्झायसमं तवो कम्मं, फ्र
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सत्य की अन्वेषणा जिज्ञासा व स्वाध्याय के माध्यम
बृहत्कल्पभाष्य-1169) संसार से प्रव्रजित हो चुके मुनि के लिए भी
अपेक्षित है कि वह जीवन-चर्या को ध्यान व स्वाध्याय- इन दोनों में नियोजित करे (द्र. उत्तराध्ययन-2 1 - 26 / 12 ) । स्वाध्याय की महत्ता तथा सत्य को भगवान् का रूप मानना - ये दोनों बातें जैन
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परम्परा में सत्यान्वेषण की प्रियता को रेखांकित करती हैं ।
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यहां यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि उक्त स्वाध्याय क्या जैन ग्रन्थों का ही किया जाय या अन्य परम्परा के ग्रन्थों का भी किया जाय । इस विषय में मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जैन परम्परा उदारवादी रही है, वह स्वाध्याय को सीमित दायरे में नहीं बांधती है। जैन अनेकान्त दृष्टि ने अध्ययन-अनुसन्धान के क्षेत्र में उदार दृष्टि का सूत्रपात किया है और धर्मसंघ में ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र को व्यापक बनाया है । मैं प्रांसगिक रूप में कुछ तथ्य यहां रखना चाहता हूं।
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पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने 'आचार्य' के ♛ लिए स्वसमयवित्, परसमयवित् तथा नानाविधदेशभाषाविज्ञ होना
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अपेक्षित माना है (द्र. जैनतत्त्वकलिका, पृ. 174-179), अर्थात् उसे जैन फ्र
व जैनेतर - दोंनों के सिद्धान्तों का तथा अनेक भाषाओं का भी फ्र
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ज्ञाता होना चाहिए।
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आ. सिद्धसेन (ई. 5वीं शती) ने भी स्पष्ट कहा था
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$ज्ञेयः परसिद्धान्तः (द्वात्रिंशिका, 8/19) अर्थात् अन्य परम्परा के
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- सिद्धान्तों को भी जानना - पढ़ना चाहिए। आ. जिनभद्र गणि (ई.
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5-6 शती) ने भी विशेषावश्यक भाष्य में स्वाध्याययोग्य शास्त्रों