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________________ (5) ध्याननिर्मथनाम्यासाद् देवं पश्येद् निगूढवत् । (श्वेताश्वतर उपनिषद् - 1/4 ) - ध्यान के अभ्यास द्वारा अन्तर्निहित - निगूढ (परमात्मा) देव का साक्षात्कार करे । पितामह हैं । (6) ततो योगिन चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । ( गीता - 15/11 ) -योगी प्रयत्नशील होकर अपनी आत्मा में ही अवस्थित इस (परमात्मा) को देखते हैं- साक्षात्कार करते हैं । (7) जगणाो, जगबंधू जय जगप्पियामो भयवं । ( नन्दी सूत्र - 1) - भगवान् महावीर जगत् के नाथ, जगत् के बंधु और जगत् के (8) सर्वलोकमहेश्वरं सुहृदं सर्वभूतानाम् । ( गीता - 5/29) —परमात्मा सर्वलोक के महेश्वर और भूतमात्र के सुहृद्-बन्धु हैं । (9) लोगस्स उज्जोयगरे चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । (आवश्यक सूत्र, चतुर्विंशतिस्तव) -लोक में उद्योत करने वाले वे प्रभु चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल और सूर्य से भी अधिक प्रकाश करने वाले हैं। जन धर्म एवं वैदिक धर्म की सास्कृतिक एकता 480
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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