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(7) यद्गत्वान निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम।
(गीता- 15/6) - जहां जाकर (जीव) वापिस नहीं आते, वही मेरा परम
स्थान है।
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बन्धन के लिए किसी अन्य को दोष देना तथा मोक्ष-प्राप्ति के लिए किसी अन्य परमेश्वर की कृपा पर आश्रित होना- ये दोनों ही मान्यताएं पुरुषार्थवाद के प्रतिकूल हैं। जैसे बन्धन हमारे अपने कर्मों का कुफल है, वैसे ही मोक्ष भी अपने पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। मुक्त होने का अर्थ है- आत्मीय शुद्ध स्वरूप 'परमेश्वरत्व' की प्राप्ति और संसार से पूर्णतः निवृत्ति। इस शाश्वत सत्य का वैदिक व जैन- दोनों धर्मों ने समर्थन किया है।
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