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(7)
लद्धे वि मणुअजम्मे, अइदुल्लहा सुगुरुसामग्गी ।
अतिदुर्लभ है।
विचार है ।
(गुरुप्रदक्षिणाकुलक- 9)
- मनुष्य - जन्म मिलने पर भी सद्गुरु रूपी सामग्री का मिलना
(8)
गुरूर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः ॥
( महाभारत - 12/108/106)
-पिता व माता से भी अधिक श्रेष्ठ 'गुरु' होता है - ऐसा मेरा
व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में माता-पिता-गुरु- इन तीनों का समान महत्त्व है । प्रत्येक का अपनी उपयोगिता की दृष्टि से अनुपम महत्त्व है। जैन व वैदिकइन दोनों धर्मों में माता-पितागुरु, इन तीनोंकी महनीयता की स्वीकृति के साथ-साथ, इन्हें सर्वाधिक आदर दिया गया है।
तृतीय खण्ड/ 463