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________________ एक ओर खड़ा था। एक सर्प उधर आ निकला । वृद्ध और युवक लाठियां लेकर यह कहते हुए कि मारो इस जहरीले को, सर्प पर टूट पड़े और मार डाला। कुछ देर बाद दुमुंह जाति का एक और सर्प उधर आ गया। युवक उसे भी मारने दौड़े। लेकिन वृद्धजनों ने यह कहते हुए कि यह निर्विष है काटेगा नहीं, उसकी रक्षा की। इस घटना ने हरिकेशबल के मन में चिन्तन का एक क्षितिज अनावृत किया। उसे सोचा- जो विषैला है वह मारा जाता है जो विषैला नहीं है, उससे सब प्रेम करते हैं। मेरी प्रकृति में विष भरा है इसीलिए मैं उपेक्षा का पात्र बना हूं । मेरी उपेक्षा का दायित्व मुझ पर है। मेरी प्रकृति पर है। इस प्रकार के मनोमन्थन से अमृत प्रगट हुआ। वैराग्य का अमृत । कटुता को आमूल नष्ट करने का संकल्प। हरिकेशबल मुनि बन गए। उन्होंने कठोरतम तप प्रारंभ कर दिया। उनके तप से प्रभावित एक यक्ष उनकी सेवा में रहने लगा। एक बार वाराणसी नगरी के बाहर एक उपवन में हरिकेशबल मुनि ध्यानस्थ थे। वाराणसी की राजकुमारी भद्रा उपवन में आई। उसकी दृष्टि मुनि पर पड़ी। मुनि की कुरूपता और उसके मैले-कुचैले वस्त्र देखकर राजकुमारी ने घृणा से नाक-भौं सिकोड़ लिए तथा उन पर थूक दिया। राजकुमारी की मनोदशा समझकर यक्ष ने राजपुत्री को अचेत कर दिया। उसके मुख से रक्त बहने लगा। पुत्री की दशा की सूचना पाकर राजा दौड़कर आया। उसने मुनि से क्षमा मांगी। यक्ष ने कहा- यदि तुम भद्रा का विवाह मुनि से करो तो यह ठीक हो सकती है। राजा ने स्वीकार कर लिया। यक्ष ने भद्रा को स्वस्थ कर दिया। राजा ने अपनी पुत्री को ग्रहण करने का निवेदन मुनि से किया। हरिकेशबल मुनि ने कहा- “राजन्! मैं तो ब्रह्मचारी मुनि हूं। मैं आपकी पुत्री को ग्रहण नहीं कर सकता। यह तो मेरी भगिनी है।' यह कहकर मुनि अन्यत्र विहार कर गये: भद्रा को परित्यक्ता माना गया। राजा ने उसका विवाह रूद्रदत्त पुरोहित के साथ कर दिया। रूद्रदत्त एवं भद्रा गृहस्थ जीवन जीने लगे। एक बार पुनः हरिकेशबल मुनि का वाराणसी आगमन हुआ। वे तपस्वी थे। एक माह के उपवास के पारणे के लिए हरिकेशबल मुनि द्वितीय रवण्ड/295
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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