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इस दुर्लभ अधिकार के लिए मत ललचाओ, ध्रुव! भगवान् को प्रार्थना से प्रसन्न करो और मेरे गर्भ से जन्म लो। तभी इस गोद में बैठने का सौभाग्य सुख तुम्हें मिल सकता है।"
विमाता के कड़े शब्दों ने ध्रुव के बाल हृदय पर गहरी चोट की। वे दुःखी हो गए। रोते हुए अपनी माता सुनीति के पास पहुंचे और विमाता के कहे हुए शब्द बताए। पुत्र की बात सुनकर सुनीति को भी बड़ा कष्ट हआ। वह बोली-“बेटा! यह मेरे दुर्भाग्य का फल तुम्हें भोगना पड़ रहा है। मैं हतभागा हूं जिसे तुम्हारे पिता अपनी पत्नी मानते हुए भी संकोच करते हैं। लेकिन दुःखी मत हो पुत्र! अपने कष्ट का कारण मनुष्य स्वयं होता है, अपने भाग्य से ही वह सुख-दुःख पाता है। किसी अन्य को अपने अमंगल का कारण मानकर उस पर रोष नहीं करना चाहिए।"
___ "ध्रुव! क्या हुआ तुम पिता के गोद में नहीं बैठ पाए।उस गोद में बैठने से तुम्हें सुरूचि रोक सकती है लेकिन एक गोद और है। वह गोद है परमपिता की। इस परमपिता की गोद में बैठने से कोई नहीं रोक सकता। परम सौभाग्यशालियों को वह गोद उपलब्ध होती है।"
_ "मां! वे परमपिता कौन हैं?" ध्रुव ने पूछा-"और वे कहां मिलेंगे?"
"भगवान विष्णु परम पिता हैं।" सुनीति बोली- “वे तपस्या से प्राप्त होते हैं। निर्मल मन से जो उनकी एकान्त वन में आराधना करता है, वे उसे अवश्य प्राप्त होते हैं।"
"मां! मैं उन परमपिता को अवश्य प्राप्त करूंगा।"
ध्रुव ने दृढ़ता से कहा-“मैं एकान्त वन में उस परमपिता की आराधना करने के लिए जा रहा हूं।"
__ माता की आज्ञा लेकर ध्रुव वन में चले गए। मार्ग में उन्हें नारद जी के दर्शन हुए। नादर जी ने पंचवर्षीय बालक ध्रुव को भय और लालच दिखाकर परीक्षा ली। ध्रुव का दृढनिश्चय देखकर नारदजी ने उन्हें द्वादशाक्षर मंत्र की दीक्षा प्रदान करते हुए तपविधि का उपदेश दिया।
दृढ़निश्चयी बालक ध्रुव ने यमुनातट पर मधुवन में घोर तप प्रारंभ कर दिया। कई माह बीत गए। एक पैर पर ध्यानस्थ ध्रुव जब पैर बदलते तो धरती कंपायमान हो जाती । प्राणायाम से उन्हें श्वास रोक लिया।
द्वितीय तण्ड/265