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जयकुमार का विवाह श्रीमती नामक एक राजकुमारी से किया गया। पिता के श्रामणी दीक्षा लेने के बाद जयकुमार हस्तिनापुर के राजा बने।
. एक बार जयकुमार वन-भ्रमण को गए। वहां पर उन्हें शीलगुप्त नामक एक मुनि के दर्शन हुए। उन्होंने देशना भी सुनी। वहीं एक सर्पयुगल रहता था। सर्पयुगल ने भी मुनि की देशना सुनी। उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई। लेकिन कुछ ही क्षण के पश्चात् मौसम बदला । आकाश में बिजली कौंधी। बिजली नर सर्प पर गिर पड़ी। तत्काल उसकी मृत्यु हो गई। धर्मश्रवण के प्रभाव से वह मरकर नागकुमार देव बना।
कुछ दिनों बाद पुनः एक बार जयकुमार वन-भ्रमण को गए। उनके साथ अनेक अंगरक्षक थे। जयकुमार ने देखा कि वही सर्पिणी एक अन्य सर्प काकोदर के साथ रमण कर रही है। जयकुमार ने उस सर्प
और सर्पिणी को धिक्कारा और इस दुष्कृत्य पर उनकी पिटाई भी कर दी। जयकुमार आगे बढ़े। उनके अंगरक्षकों ने भी नागनागिन को पीटा। आहत नाग और नागिन जयकुमार के प्रति क्रोध से भरे थे। काकोदर सर्प मरकर गंगा नदी में काली नाम का जलदेवता बना । आहत सर्पिणी को अपने कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ और इसीलिए वह मरकर नागकुमार देवों में देवी रूप में उत्पन्न हुई। वहां भी उसे अपना पूर्व जीवन साथी नागदेव पति रूप में प्राप्त हुआ।
सर्पिणी को अपना मृत्यु-क्षण याद आया । वह जयकुमार के प्रति क्रोध से भरी ही थी, अतः उसने अपना दुष्कृत्य छिपाते हुए अपने पति से जयकुमार की शिकायत कर दी। नागकुमार अपनी पत्नी को कष्ट देने वाले के प्रति रोष से भर उठा । वह जयकुमार को सबक सिखाने के लिए नागरूप में हस्तिनापुर के वाटिका-भवन में पहुंचा। उस समय जयकुमार अपनी रानी को उसी सर्पिणी का चरित्र सुना रहे थे। नागकुमार अपनी पत्नी के चरित्र से परिचित हो चुका था। उसने देवरूप में प्रगट होकर जयकुमार से क्षमा मांगी और उसे रत्नराशि का कलश देकर विलुप्त हो गया।
उन्हीं दिनों में वाराणसी-नरेश अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। दूर देशों के राजा उस स्वयंवर में आमंत्रित थे। आमंत्रितों में जयकुमार भी थे। राजकुमारी सुलोचना ने जयकुमार को ही अपना वर चुना। शेष राजा इससे तिलमिला उठे। फलस्वरूप युद्ध हुआ।जयकुमार विजयी हुए। विजय के पश्चात्, जयकुमार
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